हाय रे ! मेरे बंजर सपने
हार रे ! मेरे बंजर सपने
// दिनेश एल० “जैहिंद”
सुबहो शाम तारों के गुच्छों-से मन-मंदिर में लगे बनने,,
लाखों में एक, सबसे हटकर, मेरे सपनों के क्या कहने,,
हाय रे ! मेरे बंजर सपने !
अक़्ल की उपज से मन की मनमौजी-सी
उड़ानें बन !!
रफ़्ता-रफ़्ता बन गए मेरी ज़िंदगी की साँसें व घड़कन !!
अब मन में घर कर मन में वही सपने लगे सजने-पलने…..
हाय रे ! मेरे बंजर सपने !
क्या-क्या जतन नहीं किए क्या-क्या यतन
नहीं किया,,
सतरंगी सपने को इस रब ने बेवक्त वीरान
बना दिया,,
नैनों में धुआँ बनकर, होंठों पर लगे मायूसी-से तैरने…..
हाय रे ! मेरे बंजर सपने !
किसी से सुना था किसी ने कहा था सपने होते पूरे !!
आँखें हैं अब गिलीं, मन रूआँसू, मेरे सपने रहे अधूरे !!
दिन में देखे, हुए नहीं अपने, हसीन सपने वो रंगीन सपने…..
हाय रे ! मेरे बंजर सपने !
बंजर सपने लाते अवसाद, देते कोमल मन
को ग्लानि !!
टूट जाते मन, छूट जाते तन, रिश्तों में भी
आती हानि !!
हर चीज़ खलने लगती, लगते हैं नाते-रिश्ते बिगड़ने…..
हाय रे ! मेरे बंजर सपने !
=============
दिनेश एल०” जैहिंद”
10/06/2020