हाय गर्मी!
हाय! गर्मी।
गर्मी की इस मार से, बच न सके हम यार।
लू हो जैसे लग गई, आया तेज बुखार।
आया तेज बुखार, रात भर नींद न आवे।
जागे सारी रात/बंद हुई जब नाक, बदल करवट सुस्तावे।
“मनवा” आफ़त टाल, बात कहता नरमी की।
बचना सब जन आप, मार से इस गर्मी की।
तीव्र भयंकर ग्रीष्म से, जो जन हो दो-चार।
लगती लू उनको तभी, ज़्वर की सहते मार।
ज़्वर की सहते मार, बिना निद्रा दिन कटते।
कर कर पश्चात्ताप, रहें बस प्रभु प्रभु रटते।
“मनवा” मत हो आप, भीष्म से शैया बन कर।
स्वयं रखो निज ध्यान, ग्रीष्म ये तीव्र भयंकर।
गर्मी इतनी पड़ रही, काशी में कल आज।
उबले बैरी लोग क्यों, योगी का है राज।
योगी का है राज, चले निस दिन बुलडोजर।
ज्ञानवापी का कूप, जहाँ मिलते प्रभु हर हर ।
“मनवा” समक्ष सत्य, झूठ की उम्र है कितनी।
उड़ जाये बन वाष्प, रही पड़ गर्मी इतनी।
गर्मी का ये दौर हैं, उबले सब्जी-तेल।
आज महंगाई यहाँ, सभी रहें हैं झेल।
सभी रहें हैं झेल, कौन है रहता आगे?
पारा करता होड़, महंगाई भी भागे।
“मनवा” कर दो माफ़, होड़ हम सह ना पाये।
ग्रीष्म-भाव हो शान्त, दौर है गर्मी का ये।
©मनोज कुमार सैन (मनवा)।