हाथ तेरा चाहती हूँ छोड़ना मैं भी नहीं
हाथ तेरा चाहती हूँ छोड़ना मैं भी नहीं
पर मिटा सकती हूँ किस्मत का लिखा मैं भी नहीं
दर्द इक दूजे का हर लेते हैं हम दोनों यहाँ
जबकि चारागर नहीं तुम औ दवा मैं भी नहीं
दांव कोई सा भी हो पर सोच कर ही खेलना
तू अगर पाषाण है तो आइना मैं भी नहीं
कर ज़माने को लिया मासूम बन अपनी तरफ
पर समझ लो पाऊंगी कोई सजा मैं भी नहीं
है पता मुझको जला देंगे किसी का आशियाँ
बुझते शोलों को तभी देती हवा मैं भी नहीं
आस्था विश्वास रखती पूरा हूँ भगवान में
रात दिन करती भले ही ‘अर्चना’ मैं भी नहीं
डॉ अर्चना गुप्ता
15-11-2017