अखबार की हाई प्रोफाइल सोच
बात 17 जून 2011 की है। मुझे फादर्स डे पर स्टोरी करने का असाइनमेंट मिला था। शहर के एक मशहूर दिवंगत कवि की बेटी का फोन आया तो मैंने उनसे असाइनमेंट के विषय पर बात शुरू कर दी। वह खुद एक कवियित्री हैं, समाज के बारे में उन्हें भी बेहतर परख है। उन्होंने मुझे शहर के ही दो पात्रों के नाम बताए। मैं तुरंत ही स्टोरी तैयार करने को राजी हो गया। उनके घर पहुंचा पाय-पानी के बाद उन्होंने अपने नौकर को मेरे साथ भेज दिया।
कहानी का सार यह था कि जवान बेटों ने बूढ़े माँ-बाप को दर-दर की ठोकरें खाने को छोड़ दिया था और अपने बच्चों के साथ खुश थे। बेटे भी आम जिंदगी गुजार रहे थे, हालांकि माँ-बाप को साथ रख सकते थे। मैंने अपनी समझ के मुताबिक बेहद भावुक स्टोरी तैयार की। पढ़कर इंचार्ज भी काफी खुश हुए, बोले-‘मियां! छा गए, कल तीन नम्बर का फ्लायर बनेगी यह स्टोरी।’
कुछ ही देर में डेस्क से फोन आया और मुझसे स्टोरी के बारे में पूछताछ की जाने लगी। कुछ देर बाद फिर फोन पर बताया गया- ‘आपकी स्टोरी इस आधार पर रिजेक्ट की गई है कि यह बहुत ही लो प्रोफाइल के लोगों से जुड़ी है। ऐसे लोगों की खबर से क्या फायदा को हमारा पाठक वर्ग नहीं है…? हमें कॉलम पूरा करना है, इसलिए जल्दी ही हाई प्रोफाइल वर्ग की स्टोरी कवर करके भेजें।’
फिर क्या था, कुछ देर दिमाग चलाने के बाद एक करेक्टर नजर के सामने आया। वह एक होटल का मालिक था। डेस्क से एप्रूवल लेकर चल दिए स्टोरी कवर करने। आनन-फानन में महिमा मंडन करती हुई स्टोरी गढ़कर भेज दी। अगले दिन पहले पेज पर उसका संक्षिप्त परिचय था, विस्तार से पेज 3 देखें। अपने नाम के साथ छपी स्टोरी देखकर कुछ पल अच्छा तो लगा लेकिन जो खुशी मिलनी चाहिए वह काफी दूर थी।
@ अरशद रसूल