हाइकु मंजूषा
हाइकु मंजूषा में रचनाकारों को प्रकाशित करने का उद्यम
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समकालीन हाइकु
1. डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव
बजती कहीं
छिपी पंख बाँसुरी
गूँजे अरण्य ।
लगे साँकल
पथ के पग रुके
लक्ष्य विफल ।
चाँदनी स्नात
विजन में डोलता
मन्द सुवात ।
फूलो जो खिले
बहार सज गयी
दुल्हन जैसी ।
2 डॉ. राजेन्द्र बहादुर सिंह
पवन संग
नाचते गाते पौधे
उर उमंग ।
स्वार्थ की नदी
अपने में समेटे
सदी की सदी ।
लू के थपेड़े
लगते तन में ज्यों
गरम कोड़े ।
मंगलामुखी
ऊपर से प्रसन्न
मन से दुखी ।
3. सत्यप्रकाश त्रिवेदी
जीवन जीना
विसंगतियों में है
गरल पीना ।
हुआ बेदर्द
जमाने ने दिया है
अनेखा दर्द ।
विवश नारी
जीवन की डगर
खोजती फिरी ।
बेटे का लोभ
छीन लिया बेटी को
जन्म से पूर्व ।
4. डॉ. राजेन जयपुरिया
कारी बदरी
बरसी, बह गई
कोरी-गगरी ।
उड़े तीतर
खड़-खड़ संगीत
डूबा पीपर ।
कनखियों से
हेर गये साजन
झरे सावन ।
द्वार का नीम
बन गया हकीम
रोग ना झाँके ।
5. डॉ. रामनारायण पटेल
शिला कंधों से
ढो रहा दिनकर
थका, लुढ़का ।
अदृश्यलय
भीतर सुनता हूँ
मैं न मेरा हूँ ।
मेघ की पाती
चातक चोंच छुए
प्रेम-अर्पण ।
काश ! मिटता
दरार पड़े हिम
राम-रहीम ।
6. मुकेश रावल
खुली खिड़की
प्रकृतिका सौन्दर्य
चमका सूर्य ।
आँखों के मोती
देखकर पाया था
अपनापन ।
अकेला घड़ा
पनघट की याद
निभाती साथ ।
तुम नहीं तो
चूड़ियों की खनक
संगीत चुप ।
7. डॉ. भगवतशरण अग्रवाल
टूटे अक्षर
गहराये सन्नाटे
काँपते हाथ ।
पंख बिना भी
उड़ती रही आयु
धरती पै ही ।
देखा औ सुना
पढ़, भोगा और गुना
काम न आया ।
स्वार्थ के लिए
रिश्ते बाँधते हम
पत्थरों से भी ।
8. मनोज सोनकर
यादें विपक्ष
सुने नहीं दलील
शोर में दक्ष ।
बाज न आए
मदमस्त बाजरा
सूँड हिलाये ।
राजा तो हटे
ससके कुरसियाँ
वंश आ उठे ।
टूटन बड़ी
सफर बड़ा लंबा
सामने अड़ी ।
9. प्रो. आदित्य प्रताप सिंह
हँसता जन्मा
रोता सानंद जिया
हँसता गया ।
यह वजूद
पकड़ते रहिए
पारे की बूँद ।
मौन घाटियाँ
उल्टी सीधी पल्थियाँ
निकट… दूर…।
हिम में कूक…
कहाँ ? प्रिया कंठ में…
गर्म हवा रे ।
10. नरेन्द्र सिंह सिसोदिया
प्रजातंत्र ही
लूटतंत्र बना है
बोले कौन है ।
सत्य-असत्य
झंझावात मन के
परेशान क्यों ?
कौन मानता
कुरान का आयतें
इस्लाम में ।
उलझन में
बेचैन रहती है
मानस बुद्धि ।
11. पूनम भारद्वाज
शीतन छाँव
है क्षणिक सुखों सी
मिलती कहाँ ।
नभ के तारे
असंख्य होकर भी
तम से हारे ।
ओढ़ निलका
सतरंगी दुशाला
इन्द्रधनुष ।
ग़ज़ल बन
सजते होंठों पर
कितने गम ।
12. वाई. वेदप्रकाश
चलते हुए
मैं भी नहीं था यहाँ
कोई है कहाँ ?
आर या पार
लड़ाई का मैदान
जीत या हार ।
मिलेगा तुझे
सपनों में आता जो
मन का मीत ।
हँसते हुए
गाता रहा हूँ मैं
जीवन गीत ।
13. भूपेन्द्र कुमार सिंह
तन पतंगा
मिटने को तत्पर
देख दीपक ।
मन दर्पण
टूटा फिर कैसे हो
कुछ अर्पण ।
होते बिछोह
रुलाता है बहुत
किसी का मोह ।
कारण हठ
हुआ न फिर मन
कभी निकट ।
14. रामनरेश वर्मा
सत्य की बात
अटपटी हो तो भी
लाए मिठास ।
कहे विद्वान
हिन्दुस्तान की जान
हिन्दी महान ।
दुष्ट गुर्राया
कुछ बड़बड़या
शान्ति भगाया ।
निर्भय बनो
अन्याय के विरुद्ध
संघर्ष करो ।
15. बद्रीप्रसाद पुरोहित
नेता समझें
देश को चारागाह
चरें जी भर ।
आधि व्याधि से
घिरी दुनिया सारी
बचा ही कौन ?
नाम सेवा का
काम है कसाई सा
खाली कमाई ।
आनंद पाना
हर कोई चाहता
पाता विरला ।
16. कु. नीलम शर्मा
शब्द श्रृंगार
कविता है दुल्हन
कागज शेज ।
जीवन डोर
बहुत कमजोर
हम पतंग ।
आँसू कहते
आँखों से बहकर
मन की व्यथा ।
माँ का आँचल
स्नेह से सराबोर
देता है छाँव ।
17. डॉ. राजकुमारी शर्मा
देवी-गरीबी
सदियों से जवान
होगी न बूढ़ी ।
क्षुब्ध हो बढ़ा
पूर्णिमा का रीत को
सागर-जल ।
ईश्वर सच
बाईबिल, कुरान
गीता भी सच ।
सर्वनाम ही
साजिशें रचते हैं
संज्ञा के लिए ।
18. डॉ. शरद जैन
लोग दोगले
आदर्श खोखले हैं
स्वर तोतले ।
बरसे मेघ
कूक उठी कोयल
मन घायल ।
ये प्रजातंत्र
बंदर की लंगोटी
एक कसौटी ।
शस्त्रों की होड़
बमों में है शायद
शांति की खोज ।
19. नलिनीकान्त
बुझेगा दीप
अंचरा न उघारो
पूरबा मीत ।
धूप का कोट
पहनकर खड़ा
होरी का बेटा ।
सिन्धु से सीखा
गरजना मेघों ने
यही संस्कार ।
सराय नहीं
आसमान में कहीं
बादल लौटो ।
20. अशेष बाजपेयी
गम इसका
नश्वर संसार में
कौन किसका ?
सूर्य ढला है
अंधेरे ने छला है
दुखा पला है ।
फूल जो खिला
घर के आंगन में
भाग्य से मिला ।
यह जीवन
है कठिन प्रमेय
रेखा अज्ञेय ।
21. सूर्यदेव पाठक पराग
यश की ज्योति
अनन्त काल तक
चमक देती ।
ओ प्यारे बीज !
अगर जमना है
मिट्टी से जुड़ो ।
गीता की वाणी
कर्म की संजीवनी
जग-कल्याणी ।
उषा सहेली
हौले से गुदगुदाती
कली मुस्काती ।
22. ओ.पी. गुप्ता
जुड़ना अच्छा
रिश्ते देते सहारा
समीप – आओ ।
दाग लगता
हर बदन पर
पग धरते ।
नून तेल का
भाव बता नहीं है
मौज करेंगे ।
चढ़ोगे यदि
उतरना भी होगा
जीना-मरना ।
23. सदाशिव कौशिक
भोले सूर्य को
निकलते ही फांसे
बबूल झाड़ी ।
पानी बरसें
टपरे वाले लोग
भूखे कड़के ।
उड़ने लगे
पहाड़ हवा संग
राई बन के ।
फूल महके
पौधे बेखबर थे
हवा ले गई ।
24. डॉ. सुधा गुप्ता
दाना चुग के
उड़ते गए पाखी
आँगन सूना ।
कौन पानी पी
बोलती री चिड़िया
इतना मीठा ।
हँसा तमाल
श्याम का स्पर्श हुआ
बजी बाँसुरी ।
पहाड़ी मैना
टेरती रुक-रुक
जगाती हूक ।
25. मनोहर शर्मा
साँप दूध पी
उगले न जहर
संभव नहीं ।
जिंदगी जीना
आसान काम नहीं
वेदना पीना ।
संवेदनायें
हो रहीं अवधूत
हुए हैं भूत ।
आधी गागर
छलकत जाये रे
गधा गाये रे ।
26. शैल रस्तोगी
सोई है धूप
तलहटी जागती
थकी लड़की ।
फूले कनेर
महकी यादें, मन
टीसती पीर ।
लिखती धूप
फूल फूल आखर
भागती नदी ।
आँखें पनीली
धुँधलाया आकाश
दिखे ना चांद ।
27. रमेश कुमार सोनी
मौत तो आयी
जिंदा कोई न मिला
वापस लौटी ।
याद रखना
भीड़ पैमाना नहीं
कद माप का ।
अकेला चाँद
साथ मेरे चलता
रात में डरे ।
पत्थर पूजा
ईश्वर मानकर
कुछ न मिला ।
28. कमलेश भट्ट
गर्मी बढ़ी तो
बढ़ा ली पीपल ने
हरियाली भी ।
आग के सिवा
और क्या दे पाएगा
दानी सूरज ।
खुद भी जले
धरा को जलाने में
ईर्ष्यालु सूर्य ।
टंगे रहेंगे
आसमान में मेघ
कितनी देर ?
29. डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
पत्थर भी क्या
सज सकते कभी
डालियों पर ।
हाथ से गिरे
मोती कूदते हुए
दूर हो गये ।
रेत समेटे
गिलहरियाँ घूमे
राम न चूमे ।
नदी थी नीली
अब नाला हो गई
पाप धो गई ।
30. रमेशचन्द्र शर्मा
धँसा सो फँसा
दलों का दलदल
मुक्ति कठिन ।
लीला वैचित्र्य
पल-पल प्रसन्न
प्रभु के भक्त ।
वर्जित शब्द
गूढ़ रहस्य मृत्यु
अस्तित्वहीन ।
आतंकवाद
बेटा ही बाप बना
गले की फाँस ।
31. डॉ. मिथिलेश दीक्षित
चाँद शिशु है
चाँदनी में है खिली
उसकी हँसी ।
बुझ न जाएँ
टिमटिमाते दीप
जागो जिन्दगी ।
पानी की कमी
आँसू टपका रही
पानी की टंकी ।
मानव तन
क्षित, जल, पावक
वायु, गगन ।
32. उर्मिला कौल
शीशा वो शीशा
टूटता आदमी भी
कण चुगूँ मैं ।
बीज अंकुरा
पात-पात पुलका
आया पावस ।
यादों के मोती
चली पिरोती सुई
हार किसे दूँ ?
कुहासा भरा
मन, कहाँ झुकूँ मैं
मंदिर गुम ।
33. कमलाशंकर त्रिपाठी
माँ की छवि मैं
क्या कुछ अन्तर है
कोई कवि में ।
पावस घन
उतरे नीलाम्बर
हरषे मन ।
आ गये कंत
पावस के संग ज्यों
आया बसंत ।
कामना वट
आश्रय पाते आये
तृष्णा के खग ।
34. डॉ. इन्दिरा अग्रवाल
भारत ! राम
विजय सुनिश्चित
पाक ! रावण ।
गीता का स्वर
तरंग जल स्वर
स्निग्ध मधुर ।
मेरा जीवन
ज्वालामुखी का फूल
आग ही आग ।
मन भटके
यत्र-तत्र-सर्वत्र
तृषा न बुझे ।
35. जवाहर इन्दु
महुआ बाग
रस पीती कोयल
पंचम राग ।
तृषा अधूरी
कब होती है पूरी
हमेशा दूरी ।
मौसम गाये
गली-गली महकी
पाहुन आये ।
नदी बहेगी
आँसू नहीं अमृत
दर्द सहेगी ।
इन हाइकुओं का संकलन सृजन-सम्मान के सरिया विकासखंड (रायगढ़ जिला) के अध्यक्ष श्री प्रदीप कुमार दाश “दीपक” ने अपनी पत्रिका ‘हाइकु मंजूषा’ में किया है । वे छत्तीसगढ़ के युवा हाइकुकार हैं ।
– जयप्रकाश मानस
रायपुर ( छत्तीसगढ़ )
30/03/2006 आलेख