हाँ वो किसान है।
लाल बसुंधरा का वो, वसुधा की माटी में पला,
नियति की मार झेल, पग पग पे है गया छला।
भले छुब्ध है, लाचार है, सूखे से परेशान है,
वो कर्मयोगी इस धरा का, हाँ वो किसान है।।
हो रेतीला रेगिस्तान या, कोई बंजर मैदान हो,
चीरे सीना जहाँ वही, लहलहाते गेंहू धान हो।
मिट्टी से उपजाये सोना, जिंदा व्याख्यान है,
वो कर्मयोगी इस धरा का, हाँ वो किसान है।।
कड़कड़ाती धूप हो, या सर्द काली रात हो,
सूखे की मार हो या, बे मौसमी बरसात हो।
जो डिगा नही कभी, वो अडिग निर्माण है,
वो कर्मयोगी इस धरा का, हाँ वो किसान है।।
झांक अन्तर्मन में तेरे, वो तुझसे है क्या चाहता,
करते अनादर अन्न का, तो मन उसका सालता।
सहेजता फसल जतन, समाजिक विहान है,
वो कर्मयोगी इस धरा का, हाँ वो किसान है।।
अन्नदाता भी है बिलखता, बात कम सब जानते,
है जग के पालनहार जो, वो खुद को कैसे पालते।
पर हलधर तो वो ही, इस धरती की जान है,
वो कर्मयोगी इस धरा का, हाँ वो किसान है।।
दूर हो अवसाद बस, आत्महंता न नाम हो,
न फ़र्ज़ से हटे, न कर्जदारी का इल्जाम हो।
राष्ट्रहित में चिद्रूप, खुल के देता योगदान है,
वो कर्मयोगी इस धरा का, हाँ वो किसान है।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित ०५/१२/२०१८ )