हाँ मैं किसान हूँ।
मुख की मीठी रोटी हूँ,
जीवन का आधार हूँ,
हाँ मैं किसान हूँ।
भूखे रहकर सींचता, रक्त से खेत
हल जोतता, भले ख़ाली हो पेट
जिस पर चले राजनीति की तलवार
जिसको व्याकुल करे भूख की मार
मैं हलधर महान हूँ,
हाँ मैं किसान हूँ।
जिसको डुबाया बाढ़ ने कभी
कभी सूखे ने जलाया भर कर
कभी झेली तेज ओले की वार
कभी झेले राजनीति और सरकार
मार से दुर्बल हूँ,
हाँ मैं किसान हूँ।
जिसकी झोपर है टूटी, क़िस्मत है फूटी
दूसरे के हाथों में लगाम जीवन की
और जीवन गर्त में बढ़ती ही जाती
कमर बोझ से टूटती जाती
वो टूटी मकान हूँ,
हाँ मैं किसान हूँ।
आँखों में अश्रु और मुख पे पपड़ी
हाथों में सूखी रोटी और वस्त्र फ़क़ीरी
ग़रीबी में जलता जाता
चूल्हे पे सुलगता जाता
हाथों की रोटी हूँ,
हाँ मैं किसान हूँ।
अन्नदाता भी मैं, क्षुधा की तृप्ति भी मैं
पर्व भी मुझसे, उत्सव का लज्जत भी मैं
संक्रांति का तिल, लोहरी की चिक्की
बिहु का ढोल, गुड़ी पड़वा की गुड़ी
सब मैं ही तो हूँ
हाँ मैं किसान हूँ।
वसुधा का पूत हूँ, वर्षा का सपूत हूँ
लाचार होने पर भी मज़बूत हूँ
हाँ मैं किसान हूँ।