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14 Nov 2019 · 3 min read

हस्तिनापुरः सभी रेप पीड़िताओं को समर्पित एक कविता

हस्तिनापुरः सभी रेप पीड़िताओं को समर्पित एक कविता

ऐ खुदा मुझे नफरत है, तुझसे और तेरी खुदाई से..!

जो अपने घर मंदिर को, हस्तिनापुर बनते देख रहा था..!!

तेरे ही घर में एक मासूम कली मसली जाती रही…!
आँसू बहते रहे उसके, चीखती रही वो चिल्लाती रही…!
लूट रही थी उसकी अस्मत, चश्मदीद गवाह बना तूँ देख रहा था…!
हादसा ये उसके साथ, एक बार नहीं बार-बार हो रहा था…!!

फिर भी तूँ चुप था और खुद को खुदा कह रहा था…!
झे नफरत है तुझसे और तेरी ऐसी खुदाई से…!
जो अपने ह पाक घर को, इस तरह नापाक होते देख रहा था…!!

इंसाफ के मंदिर में खड़ी, तूझ से इंसाफ मांग रही थी वो…!
कोई खैरात कोई सदका नही, सिर्फ इंसाफ मांग रही थी वो..!
मासूम सी परी थी, नावाक़िफ़ निशान-ए-हवस से वो…!
अपनी नही, तेरी ही इज़्ज़त बचाने तुझसे इंसाफ मांग रही थी वो…!!

इंसान की इस हैवानियत पर, शैतान भी शर्मिंदा हो रहा था..!
फिर भी तूँ चुप था और सामने तेरे, सारा तमाशा हो रहा था…!
मुझे नफरत है तुझसे और तेरी ऐसी खुदाई से…!
जो अपने पाक घर मंदिर को, हस्तिनापुर बनते देख रहा था…!!

ऐसा नहीं है, यह घिनोना हादसा पहली बार हो रहा था..!
हवस और हैवानियत का, खेल गन्दा पहली बार हो रहा था…!
निर्भया, दामिनी, जैनब, आसिफा कितनो के नाम गिनाऊ तुझे..!
हर पन्द्रहवे मिनट पर शर्मशार यहाँ, इंसानियत बार बार हो रहा था…!!

कभी आठ साल की बच्ची, तो कभी तीन बच्चों की माँ के साथ हो रहा था…!
कभी कमसिन जवान लड़की, तो कभी बूढी दादी माँ के साथ हो रहा था…!
कभी अन्धविश्वास व धर्म तो कभी, पैसा पावर पोस्ट के नाम के साथ हो रहा था…!
जब भी हुआ इंसान रोई थी, शैतान भी शर्मशार हो रहा था…!!

मंदिर भी मुहाफ़िज़ नही, जो भी हो रहा था भगवान के सामने हो रहा था…!
मुझे नफरत है तुझसे और तेरी ऐसी खुदाई से…!
एक मंदिर हस्तिनापुर बन गया, और तूँ सिर्फ देख रहा था…!!

मंदिर हो या मस्जिद, मै जाता नहीं कभी…!
भगवान हो या अल्लाह किसी से कोई गुफ्तगु, मै करता नहीं कभी…!
मगर आज पूछता हूँ मै…!
मस्जिद के खुदा से भी और मंदिर के भगवान से भी…!!

हम इंसानो की तरह, क्या तूँ भी धर्म-धर्म खेलता है…?
मंदिर मस्जिद की लड़ाई, क्या तूँ भी लड़ता-झगड़ता है…?
सियसतदाँ की तरह, क्या तू भी हिन्दू-मुसलमां करता है…?
अगर नही, तो फिर क्यों….
द्रोपती की तरह निर्भया को बचाने, कोई कृष्ण नहीं आया…!
वास्ते अदावत-ए-सीताहरण के, लंका को जलाने कोई राम नहीं आया…!
आसिफा को भी बचाने, कोई खुदा कोई अल्लाह नहीं आया…!
हाँ, नहीं आया…!
कियोंकि, शायद…!!

आसिफा मुसलमान थी, उसने खुदा की जगह भगवान को पुकारा नही…!
वारदात-ए-जगह मंदिर था,जहाँ खुदा को आना गंवारा नही…!!

खुदा और भगवान अपनी-अपनी खुदाई पर लड़ रहे थे…!
Corrupt police officer की तरह तेरा area तेरा case कर रहे थे…!
खुदा और भगवान की इस लड़ायी में, एक मंदिर हस्तिनापुर बन रहा था…!
पर परवाह किसे थी, हादसा ये हर पन्द्रहवे मिनट पर हो रहा था…!
वारदात-ए-जगह बदल रहा था, मजहब-ए-मजलूम बदल रहा था…!
कहीं कोई आशिफ़ा बन रही थी, तो कहीं निर्भया कांड हो रहा था…!
कहीं कोई दामिनी तड़प रही थी, तो कहीं जैनब का मातम हो रहा था…!
हादसा ये कभी मंदिर में, तो कभी कठुआ तो कभी उन्नाओ में हो रहा था…!
मालुम है खुदा को, हादसा ये हर पन्द्रहवे मिनट में हो रहा था..!
मुझे नफरत है तुझसे और तेरी खुदाई से…!
पूरा शहर हस्तिनापुर बन रहा था,
तूँ सिर्फ और सिर्फ देख रहा था…!!

©A.R.Sahil

Language: Hindi
1 Like · 234 Views
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