हस्ताक्षर
औरत की बेफ़िक्री,
चुभती है अक्सर हर किसी को,
औरत की हँसी,
अक्सर बेपरवाह सी लगती है हर किसी को,
औरत का नाचना,
अक्सर बेशर्म होना सा लगता है हर किसी को,
औरत की बेबाक़ी,
अक्सर स्वछन्द सी लगती है हर किसी को,
औरत का प्रेम-प्रदर्शन,
अक्सर निर्लज्ज होना सा लगता है हर किसी को,
औरत के सवाल,
अक्सर बंधन के खिलाफ से लगते हैं हर किसी को,
औरत तो है औरत
सब समझती है इस जाल को,
इस जाल की तमाम रस्सियों को एक ही सूत से बांधा है इस समाज ने
जिसका रेशा-रेशा चरित्रहीन कहता है उसे
लेकिन
सुन ए औरत
तू चल अपनी चाल कि नदी भी बहने लगे तेरे साथ -साथ,
तू खुल कर हँस कि बच्चे भी खिलखिलाने लगें तेरे साथ-साथ,
तू नाच कि पेड़ भी झूमने लगें तेरे साथ-साथ,
तू नाप धरती का कोना-कोना कि दुनिया
छोटी पड़ जाए तेरे क़दमों के लिए,
तू कर प्रेम कि अब लोग प्रेम करना भूलते जा रहे हैं,
तू कर हर वो सवाल,
जो तेरी आत्मा से बाहर निकलने को धक्का मार रहा हो,
तू उठा कलम,
और कर हस्ताक्षर,
अपने ख़ुद के चरित्र प्रमाण पत्र पर,
कि तेरे चरित्र प्रमाण पत्र पर अब किसी और के,
इस समाज के, इसके ठेकेदारों
के हस्ताक्षर अच्छे नहीं लगते..