हसीब सोज़… बस याद बाक़ी है
हसीब सोज़… बस याद बाक़ी है
यहां मजबूत से मजबूत लोहा टूट जाता है
कई झूटे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है।
मिरे बच्चों कहाँ तक बाप के काँधों पे बैठोगे,
किसी दिन फ़ेल इस गाड़ी का इंजन हो भी सकता है।
– Haseeb Soz
रिश्ता मुहब्बतों का निभा कर चला गया
महरो वफा के गीत सुना कर चला गया
रहने लगी है इल्म की सब महफिलें उदास
शेरो सुखन की शमअ जलाकर चला गया
– Arshad Rasool
बहुत ज्यादा पुरानी नहीं है, कोई दो ढाई साल पहले की बात होगी। सोहराब ककरालवी साहब के साथ हसीब सोज़ साहब के यहां जाना हुआ था। वह भी उन्होंने बहुत सख़्ती के साथ बुलाया था, तब कहीं जाना हो पाया। यूं तो पहले भी मिल चुके थे, लेकिन तसल्ली के साथ वह पहली मुलाकात थी। उन्होंने मुझे अपनी उर्दू में लिखी किताब चांद गूंगा हो गया दी थी। किताब पढ़कर महसूस हुआ कि ऐसी शख्सियत और फन पर कुछ लिखना मेरा भी फर्ज बनता है। एक लेख लिखा और वह छपा भी।
लेख पढ़ने के बाद हबीब सोज़ साहब का फोन आया। लंबी गुफ्तगू के दौरान उन्होंने मेरी तारीफ में एक बात पर खास ज़ोर दिया। वह यह कि “मैं तो नौसिखिया समझ रहा था, लेकिन आप तो छुपे रुस्तम निकले, यह लेख मेरी उम्मीदों से कहीं आगे है।” उनकी जुबान से सुने गए कुछ तारीफी लफ़्ज़ों ने बहुत हिम्मत दी।
फोन पर बातचीत का सिलसिला कुछ यूं ही चलता रहा। अक्सर हम लोग एक दूसरे को फोन पर शेर सुनाने लगे। मैं उनसे कहा करता था कि कुछ कमी हो तो इस्लाह कर दीजिए, इस पर उनका एक ही जवाब होता था कि मैं इस्लाह तो नहीं कर सकता, लेकिन मशवरा जरूर दे सकता हूं… इन बातों से समझ में सिर्फ यही आया कि सही मायने में इसी को बड़प्पन कहते हैं। आज बेबाक अंदाज़ और अछूते रंग में शायरी करने वाले फनकार बहुत कम नजर आते हैं। वाकई आप बहुत याद आओगे…