हसरतें थीं…
ग़ज़ल
हसरतें थीं झील के टुकड़े की पर सागर मिले।
दुनिया भर की खाक छानी कि कहीं तो घर मिले।।
कुछ नया तो था नहीं दोनों ही के किरदार में।
क्या वजह थी बीच रस्ते आज वो रुककर मिले।।
तेज़ तूफाँ ही दिखाते हैं कि क्या औकात है।
महलों पर सांकल पड़ी दिल खोल के छप्पर मिले।।
थी उड़ाने भी तो बस में देर से आया समझ।
बाजुओं के भेस धारे मुझको तो थे पर मिले।।
बीज नफरतों के बोए खेत सब लहरा रहे।
प्रेम वाले खेत सारे अब तलक बंजर मिले।।
ढह गए एक एक करके सारे रिश्ते यूँ ‘लहर’।
सारी बस्ती रेत की थी रेत के ही घर मिले।।