हवा हुए वे दिन बचपन के
हवा हुए वे दिन बचपन के
जब अजिया भाॅंती थीं माठा
अम्मा देतीं सेंक पराॅंठा
यही नाश्ता करते थे नित
और गाॅंव में थे हम अविजित
हम माहिर थे अपने फन के
हवा हुए वे दिन बचपन के
कभी जब न होता था माठा
खाते थे हम राब पराॅंठा
यदाकदा सत्तू पीकर हम
करते थे खलिहानों में श्रम
हम मालिक थे अपने मन के
हवा हुए वे दिन बचपन के
गर्मी भर मॅंड़नी चलती थी
फुरसत हमें नहीं मिलती थी
स्वयं कुनाई रहे उसाते
कभीकभी थे सुख पहुंचाते –
न्योते शादी ब्याह लगन के
हवा हुए वे दिन बचपन के
रोज दोपहर नहर नहाना
और नहाकर घर आ जाना
चने और जौ की खा रोटी
रही फड़कती बोटी-बोटी
थुलथुल कभी न थे हम तन के
हवा हुए वे दिन बचपन के
सुबह-शाम नित चारा-सानी
खींच कुएं से घर का पानी
चेहरा हरदम मुसकाता था
अतिथि जब कभी घर आता था-
स्वामी हो जाते थे धन के
हवा हुए वे दिन बचपन के ।
महेश चन्द्र त्रिपाठी