हवाओं की उर्म नहीं होती
हवाओं की उर्म नहीं होती
हवाओं की उर्म नहीं होती
इनका तो बस एहसास होता है,
जब उड़ते बहते हुए यह चुभती
हुई दोपहरी में पसीने से तर तन को
सुकून से लबालब भर देती है,
चेहरे पर एकदम जुल्फों को
सैर करने की अनुमति सी दे देती हैं,
निरंतर, नियमित, बिना रुके
बिना थमे, यह सरोबार कर रही हैं हमें
अपनी शीतल छुअन से,
पानी भी बहते-बहते कुछ
भान सा दे रहा है,
चलते रहो, बहते रहो, देते रहो
समाते रहो, हर वो कठोर पत्थर, हरेक पत्ता,
महकते हुए वो फूल, जो सहसा ही
गिर पढ़े थे, उड़ती हुई धूल धरा पर
बिखरे हुए शूल, सदियों से बुझाता
रहा है प्यास शुष्क हुई मानवता की,
ऐसा अस्तित्व बन चुका है पानी का
सूखे होंठ तो बिना रंग, बिना खुशबू
के पानी की बूंदे ही दे सकती है वो स्वाद
जो दुनिया की कोई शय नहीं सकती,
उर्म की यहां कोई दरकार नहीं,
क्यों न किरदार हम अपना ऐसा ही बना लें
रुसवाईयों के तीर, न लें गंभीर
प्रत्येक क्षण सीखते हुए, समाते हुए स्वयं में
जो भी मिले अनुभव कटु हो या हो मीठी खीर
चलते रहे, बहते रहे, उड़ते रहे स्वंछंद से
मुक्त हो भीतर से, आने न पाए शिकन चेहरे पे,
वक्त के थपेड़ों की
हो जाए अमर सीखते हुए, कुछ देते हुए,
अपनाते हुए, मुस्कुराते हुए–
मीनाक्षी भसीन© सर्वाधिकार सुरक्षित