हर बार मैं ही क्यों ?
क्यों बार – बार हर बार
मैं ही दूँ अग्नि परीक्षा ?
इसलिए की मैं प्रेम में पिघल जाती हूँ ?
अपना सर्वस्व समर्पित कर तुमको
रिश्तों की धारा में बह जाती हूँ ?
मेरे समर्पण का बहाव तुम झेल नही पाते हो
मेरी पवित्रता के तेज से तुम खेल नही पाते हो ,
तुम जल ना जाओ मेरे तेज से
इस डर से अपना पौरूष दिखा
अपना मुझ पर हक़ जता
मेरी ही परीक्षा ले डालते हो ?
तुम क्यों नही देते अग्नि परीक्षा
क्योंकि विश्वास है तुमको खुद पर
कि तुम सच सह ना पाओगे
इस पवित्र अग्नि में तुरंत जल जाओगे ,
खुद का डर मुझ पर थोपते हो
और हर बार सदियों से
अविश्वास की नयी पौध रोपते हो ,
आओ इस नयी सदी में
अपना झूठा विश्वास तोड़ो
अपनी बेवजह सोच का रूख मोड़ो ,
मैं तो युगों – युगों से देती आई हूँ
नितांत अकेले अग्नी परीक्षा
इस बार तुम भी उतरो मेरे साथ ,
तुमने तो अकेले जाने दिया था मुझे अग्नि में
लेकिन तुम डरो मत
मैं साथ हूँ तुम्हारे
अग्नि के बाहर भी और अंदर भी
पकड़ के तुम्हारा हाथ ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 05/11/18 )