हर बार छली जाती हूँ……
हर बार छली जाती हूँ……
इस बार हर बार की तरह…..
मेरी छुट्टियां यूँ न गुजरने वाली थीं…
सालों बाद मिली तुम सब के साथ
तुमसब के यादों के फूलों को …
मन की बगिया में समेटे …
आ ही रही थी तुमसब के पास…
उस शहर में जो कुछ- कुछ गाँव सा था …
जहाँ कुछ फूल प्रतीक्षारत होंगे …
वही निश्छल सी मुस्कान लिये
होठों पर…
गुनगुनाएगी हवा मेरे कानों में कुछ यूँ ..
कितनी प्यारी लगती हो तुम…
एकदम से ज्यों आसमान की परी…
आज भी तुम्हारी आँखें वैसे ही बातें करती हैं..
बहुत कुछ मुझसे कहेगा मेरा वो घर
जिसकी दीवारों पर खींचीं थी मैंने कई लकीरें …
सुनो….सुन रहे हो न तुमसब ?…
बस यही बदलाव आया है…
इन तीस सालों में शायद ..
ये सब मेरी आज भी मन की बातें हैं..
मैं बस चाहकर भी बोल नहीं पाती …
फिर से बातें करने लगी हूँ मैं…
क्योंकि मन की चाह भी कभी पूरी हुई है भला..
बावली बन जाती हूँ बस……
जब कोई मेरा बचपन वापस दिलाने को बोल
छल से मुस्काता है….
और मै उसके पीछे की उनकी विद्रूप चाल
नहीं समझ पाती ..
एक बार नहीं ..फिर बार बार… छली जाती हूँ ..
………………. अमृता निधि