हर कोई मुझमें
हर कोई मुझमें कुछ न कुछ ढ़ूढ़ता ही रहा
सकून इतना कहां से पाया पूछता ही रहा
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तुमसे हर बात में हमेशा मैं हार जाता रहा
जीत तुम्हारी जश्न पर जश्र मैं मनाता रहा
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दिल खोल कर मैं तो सच कह जाता रहा
पर वो मेरे गम को मेरी खुशी बताता रहा
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हमारे मुस्कराने का अंदाज एक जैसा रहा
तुम दर्द देने पर मैं पाने पर मुस्कराता रहा
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हैरान हूं ये जहर तुममें कहां से आता रहा
जिसके सामने सांप भी पानी मांगता रहा
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सुबह-शाम घर तुम्हारे मैं आता-जाता रहा
क्यों अपने आस्तीन में खंजर छिपाता रहा
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रोज- रोज गुनाहों पे गुनाह जो करता रहा
जज अदालत बनकर मुझे सजा देता रहा
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तुम्हारा हर सितम हौसलों पर सहता रहा
बाद हर सितम के मेरा हौंसला बढ़ता रहा
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अपनी मजबूरियां मैं दुनिया से कहता रहा
जमाना तो मेरी उपलब्धियों में गिनता रहा
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हंसी तुम्हें आई मैं तिनका सा उड़ता रहा
तुम गिरते गए मैं उतना ऊपर उठता रहा
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-रामचन्द्र दीक्षित ‘अशोक’