हरे-हरे खेतों की ओढ़नी
हरे-हरे खेतों की ओढ़नी
अपनी काया को उढ़ाती है
फूलों के आभूषण पहन कर
अम्बर को धरा रिझाती है
दो बूँद प्रेम भी उस पर
बरसाता नहीं है
अम्बर धरा की तृष्णा को
बुझाता नहीं है
अपने हृदय की पीड़ा वो
सारे जग से छिपाती है
कोई बता दो अम्बर को
उसे कितना धरा चाहती है
अम्बर का प्रेम पाने को
सौ-सौ जतन करती है
उस निर्मोही के बिरह में
निसिदिन धरा सिसकती है
त्रिशिका श्रीवास्तव धरा
कानपुर (उत्तर प्रदेश)