हरी भरी थी जो शाखें दरख्त की
हरी भरी थी जो शाखें दरख्त की
झूलते थे परिंदों के ख्वाबों के आशियाने जहां
कट रही है आज वो
आशियाना छिना गया, वीरान फिर मंजर हुए
बच गए तो वो बेजुबां हयात, जो अब बेघर हो गए
इंसानी उफ़्ताद ने ऐसा कोहराम मचाया
हर ओर विरानियां मुसल्ल्त है, दहसत का है साया।
– सुमन मीना (अदिति)