हरिश्चंद्र विलाप
हाय रे बिधना विपत ये कैसी,
क्यों व्याकुल मन तरसाया है।
नियति बनी गया राजपाट सब,
दर-दर बिधिवत भटकाया है।।
एक दुखियारी सहे ताने बांझ के,
जग में माना उसकी लाचारी है।
पर देई देव् मोहे सन्तन्त छिना,
कहो कैसी निर्दयता तुम्हारी है।।
आज उसी की है देह खोजती,
मुखाग्नि को मशान ये जागी है।
देहिं सके न मोल जो माँ तारा,
जीवट ममता तेरी अभागी है।।
क्षमा करो हे रोहिताश्व पूत यूँ,
धर्म के बस न कर्म हिलाऊ।
डोम राज के मोल दिए बिन,
न चिता धरु न ये चर्म जलाऊ।।
भले करुण हृदय दो टूक करे,
छाती अम्बर का फट जाने दे।
शोक रसातल जा धरती डोले।
ये मेरा कर्तव्य तू हमें निभाने दे।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित १७/१२/२०१७