हरा पत्ता।
शरद ऋतु अपने यौवन पर थी। उसने बड़ी निर्ममता से पेड़ों से उनके वस्त्र छीनकर उन्हें निर्वसन कर दिया था। वृक्ष कातर होकर खड़े थे। उनकी ऊपर उठी हुई डालियां जैसे ईश्वर से प्रार्थना कर रहीं थी कि प्रभु हमें इस कातरता से मुक्त करो। हर वर्ष की भांति इस बार भी प्रकृति के माध्यम से ईश्वर ने उनकी सुन ली और फाल्गुन मास को आदेश दिया कि आप धरती पर प्रकट होइए। परम् पिता परमेश्वर के आदेश को कब कोई टाल पाया है या यों कहें कि टाल सकता है। तो फाल्गुन ने अपने आने के संकेत पृथ्वी पर भेजने आरंभ कर दिए। हाड़ कंपा देने वाले शीतलता मंद पड़ने लगी। दिन और रात अलग लगने लगे। वृक्षों में भी एक नवसंचार का प्रवाह होने लगा। असंख्य स्थानों में नवीन पत्ते गुनगुनाने लगे। धीरे धीरे वृक्ष अपनी गंवा चुकी सुंदरता की तरफ बढ़ने लगे। प्रत्येक दिवस के साथ उनकी शोभा बढ़ने लगी। उनके श्रृंगार की आभा बढ़ने लगी। पत्ते आपस में चुहलबाजियाँ करने लगे , हवाएं उनका साथ देने लगीं। जो भी उन वृक्षों के समीप जाता वह मुदित मन वापस आता।
पर उन असंख्य पत्तो में एक पत्ता ऐसा भी था जिसपर प्रकृति की आवश्यकता से अधिक कृपा थी। अधिक चिकना , अधिक हरा , अधिक स्वस्थ कहने का आशय यह को वह अद्भुद ही था। लोग उसे देखते सहलाते कौतुक करते , कहते कि कैसी तो आभा है , सूर्य भगवान भी जैसे इस पर अपनी रश्मियों को अतिरिक्त रूप से प्रेषित करते हैं। यह सब सुनकर उस पत्ते को यह झूठा विश्वास हो गया कि वह बाकियों से अलग है। अन्य पत्ते उससे ईर्ष्या तो नहीं करते थे किन्तु यह अवश्य सोचते थे कि उन्हें भी यह कृपा प्राप्त हुई होती।
आपस में बतियाते , चुहल करते पत्तों को जमीन पर पड़े निष्प्राण , निस्तेज पीले पत्तों पर भी दृष्टि जाती थी। जिसमें कुछ तो सड़ गल कर मिट्टी में मिलने की तैयारी में थे , कुछ सूख गए थे जिन्हें हवा यहां से वहां उड़ाती रहती थी। पत्तों ने जब उनके बारे में जानना चाहा तो डालियों ने उन्हें बताया कि वे भी कभी हमारे थे। जिस तरह आज आप लोग हमारी शोभा बढ़ा रहे हो उसी तरह वे भी हमारी शोभा बढ़ाते थे पर कालचक्र का प्रवाह ऐसा है कि आज वे धरती की शोभा बढ़ा रहे हैं। पत्तो ने कहा कैसी शोभा ? पीले हैं , गल रहे हैं , सड़ रहे हैं , मिट्टी में मिल रहे हैं ! क्या इसे शोभा बढाना कहते हैं। डालियां मुस्कराईं कहा यही नियति है। सारे पत्तों के चेहरे मुरझा से गये तो डालियों ने कहा ये तो एक चक्र है जिन पत्तियों को तुम गलते , सड़ते देख रहे हो वो अपने अस्तित्व को रूपांतरित कर रही रही हैं। जब कल तुम इनकी स्थिति को प्राप्त होगे तो ये तुम्हारी तरह यहाँ लहरा रही होंगी। बाकी पत्तियों को तो बात समझ में आ गयी पर वह अद्भुद पत्ता उद्वेलित हो गया। बोला बाकी सब इस स्थिति को प्राप्त होंगे पर मैं नहीं , मैं सबसे अलग हूँ , देखते नहीं मेरा आकार प्रकार मेरी सुंदरता सबसे अनुपम है। मैं यहीं रहूंगा , सब जायँगे मैं सबको जाते हुए देखूंगा। कोई कुछ नहीं बोला। डालियों ने भी चुप रहना बेहतर समझा।
समय गुजरा , ग्रीष्म गयी , वर्षा ऋतु जल से रीत कर वापस चली गयी । वापस शिशिर का आगमन हुआ। पत्तो पर धीरे धीरे पीलापन आना शुरू हुआ। वह पत्ता भी उससे अछूता नहीं रहा। पर उसे अभी भी अभिमान था कि उसे कुछ नहीं होगा। पर भारी होने और ज्यादा उन्नत होने के कारण उसपर होने वाले बदलाव भी अन्य पत्तों के बजाय अधिक दिखाई देने लगे थे। वह परेशान था। पर कुछ कर नहीं सकता था। और जब पतझर का आरंभ हुआ तो भारी होने के कारण सबसे पहले वह ही डाल से टूटा। जब वह तेजी से पृथ्वी की तरफ जाने लगा तब उसे समझ आया कि कोई कितना भी सुंदर हो शक्तिशाली हो , कितना भी प्रशंसित हो काल को उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। वह अपना कार्य बिना किसी भेदभाव के करता रहता है। वह बहुत दुखी था पर उसे डाल द्वारा कही गई एक बात सांत्वना दी रही थी कि वह सड़ गल कर मिट्टी बनकर वापस एक दिन फिर पत्ता बनकर लहलहएगा।
अंततः जब वह पृथ्वी पर जाकर गिरा तो उसके होठों पर एक दैवीय मुस्कराहट थी। उस मुस्कराहट को देखकर अन्य पत्ते हैरान थे। पर साथ ही साथ प्रसन्न भी थे कि जब इसे दुख नहीं तो हमें दुखी होने का कोई कारण नहीं।