हरगीतिका- मात्रा भार 28
संसार के दुख-दर्द का है, अंत आखिर अब कहाँ।
खुशियाँ बाँटें विश्व को, ऐसे हैं माहिर अब कहाँ।
अवकाश लेकर बैठने में,फायदा क्या है भला,
जो बात अंदर ही दबी थी, खास ज़ाहिर अब कहाँ।
क्या है मुहिम किस राह चलना,क्या पता-किसको भला,
लिख दें खुलेपन से असल, हैं फ़ैज-साहिर अब कहाँ।
हो लक्ष्य निर्धारित अगर, गन्तव्य तक पहँचें सभी,
मैं खोजता हूँ साथ हों, ऐसे मुसाफिर अब कहाँ।
बढ़ती जातीं खाइयाँ, इन्सान और इन्सान में,
मालिक सभी का एक है, हममें ‘सहज’ काफिर कहाँ।
@डा०रघुनाथ मिश्र ‘सहज’
अधिवक्ता /साहित्यकार
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