हम रोज उम्मीदों वाला एक शजर लगाते हैं
हम रोज उम्मीदों वाला एक शजर लगाते हैं
तुम्हें खिड़की पे सोच कर ही मुस्कुराते है
चाॅंद दूर गगन में ही सही, मुस्कुराता तो होगा
हम जमीं से ही देख उसको रात भर मुस्कुराते हैं
बन्द आंखों में रहा वो सारी रात गुफ्तगू के साथ
खुली आंखों में शबनम की तरह वो मुस्कुराते हैं
चाॅंद और चकोर की दूरी हम पे जाहिर है “जाना”
फिर भी चकोर की पीहू पीहू पे हम मुस्कुराते हैं
~ सिद्धार्थ