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24 Nov 2016 · 1 min read

हम तो परदे खोल रहे हैं

हम तो परदे खोल रहे हैं
क्यों सिंहासन डोल रहे हैं

बेड़ा गरक हो चुका उनका
फिर भी नफरत घोल रहे हैं

खुसुर पुसुर है घर पर, जिनके
खातों में कुछ झोल रहे हैं

बदल रहे इतिहास देश का
और बदल भूगोल रहे हैं

कितनी खुश है, नन्हीं गुड़िया
उसके सिक्के बोल रहे हैं

फिंके आज रद्दी की माफिक
जो इक दिन अनमोल रहे हैं

झाँक रहे हैं बगलें अब तो
जो भी गोल मटोल रहे हैं

पापी सभी सजा पायेंगे
जिनके जैसे रोल रहें हैं

बड़े नोट कोने में छुपकर
आज समय को तोल रहे हैं

1 Like · 1 Comment · 253 Views
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