हम और तुम
———-अरुण कुमार प्रसाद
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मिट्टी खोदकर तुमने कंद,मूल,जड़ी-बूटी निकाले।
मिट्टी खोदकर हमने निकाला स्वर्ण।
तुम इतना ही क्यों कर पाये?
मंदिरों में लेटकर साष्टांग, तुमने प्रार्थनाएँ की।
मंदिरों में लिटाकर साष्टांग, हमने दक्षिणा वसूले।
तुम ऐसा ही क्यों कर पाये?
कर और दक्षिणा में तुमने किया अंतर।
कर और दक्षिणा में हमने एकरैखिक समानता देखी।
तुम इतना ही क्यों समझ पाये?
सभ्यता की परिभाषा, तुमने गुप्तांग ढँककर पूरी की।
सभ्यता की परिभाषा, हमने गुप्तांग नग्न कर समझाए।
तुम इतना क्यों नहीं झेल पाये!
संस्कृति को जीवित रखना तुमने कर्म समझा।
संस्कृति को जीवित रखना हमने शासन।
तुम इतना क्यों नहीं देख पाये?
लोहा पिघलाकर कुदाल,फाल,फावड़े तुमने बनाए।
लोहा पिघलवाकर तीर,तलवार,भाले हमने बनवाये।
नियंत्रित करने तेरी आजादी,तुम देख क्यों न पाये?
रात में सोकर तुमने उतारी अपनी थकान।
रात में सोकर देखे हमने साम्राज्य के सपने।
तुम भविष्य के सपने क्यों नहीं देख पाये?
राजनीति को कल्याण का पर्याय माना तुमने।
राजनीति को अय्याशी की अनुमति माना हमने।
तुम इसके भागीदार होने क्यों छटपटाए?
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