हम और तुम जैसे…..
हम और तुम जैसे…..
हम और तुम
जैसे रेल की पटरी
साथ तो हैं मगर जुदा जुदा
मानो तुम मुझसे मैं तुझसे
कुछ ख़फ़ा ख़फ़ा
या सड़क के दो किनारे
दो समानांतर रेखाएँ
साथ साथ तो चलतीं
पर कभी नही मिलतीं
बीच में पसरा अहम
समेट न पाए हम
ज्यूँ नदी के दो पाट
मध्य जिसके डूब रही
भरोसे की कश्ती
अपेक्षा उपेक्षा के भँवर में
इक दूजे को ढूँढते
न जाने कहाँ खो गए हम
मैं,मैं रह गयी
तुम रह गये तुम
शायद इतने क़रीब थे
कि दूरी फलांग न सके
ग़र दूर से देखा होता
तो सम्भावनाएँ होती
जुड़ जाने की
एक हो जाने की
जैसे दूर क्षितिज पर
मिल जाती हैं पटरियाँ
सड़क के दो किनारे
नदिया के पाट
चलो भ्रम ही सही
मगर जगा जाता है
एक आस एक उम्मीद
दूर क्षितिज पर मिलने की
एक सपन ही सही
पर मिल तो जाते
काश हम थोड़ी दूर और
साथ साथ चल पाते
रेखांकन।रेखा ड्रोलिया
कोलकाता
स्वरचित