हम औरतें
हम औरतें….
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हम औरतें….
हर कुछ दिनों में….
झांक झांक कर
देख लेती हैं, बंद पड़ी
संदूकची को…
अलमारियों को….
ठीक उसी तरह
जैसे खोलती हैं
सबके बंद मन को….
कितनी भी व्यस्तता हो,
हम नहीं भूलती हैं,
हर कुछ दिन में
साड़ियों की तह को खोलना,
साड़ी को उल्टना पलटना
और फटककर
फिर वापस रख देना…
ठीक वैसे ही
जैसे बच्चों और पति से
सवाल पूछ पूछ कर,
जाने अनजाने
खोलना चाहती हैं,
उनकी मन की तहों को…
फटक कर
झड़ाना चाहती हैं,
उनके दिलों पर जमी गर्द को…
हम औरतें
पुरानी से पुरानी
साड़ियां भी,
सम्हालकर रखती हैं
जतन से…
बिल्कुल उसी तरह
जैसे सम्हालती हैं
रिश्ते जतन से…
और फिर भी यदि,
साथ छूटने ही लगे…
रेशा रेशा
टूटने ही लगे….
तो बनाकर
कुशन कवर
या पर्दा ,
दे देती हैं
उसे एक नया रूप,
नया नाम…
ठीक वैसे ही
जैसे,
रूठी हुई सास को
बना लेती हैं मां…
नाराज ननद को…
दे देती हैं
बहन का नाम….
और सहेज लेती हैं फिर
नए नाम, नए रूप के साथ उसे….
आसानी से विदा नहीं होने देती हैं
न उधड़ते हुए
रेशम के 6 मीटर के
टुकड़े को,
न उधड़ते हुए…
6 बरस पुराने
रिश्ते को….
हम औरतें…
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