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10 Jun 2023 · 1 min read

मेरा वजूद

मैं पतंगा आग का,
जला और राख हो गया,

उड़ा आवारा हो गया
और खला में खो गया..।

बहता रहा हवा के साथ
वजूद अपना छोड़ के,

तीरगी-ए-बख्त में
मैं वे-बख्त हो गया..।

चमका कुछ एक पल के लिए
और राख होकर शांत हो गया,

ना जला चूल्हा ही मुझसे
ना घर का अंधेरा मिट सका..।

ना हुआ शरद रातों का अलाव मैं
ना भट्टी में फौलाद बनकर तप सका,

मैं बना पतझड़ का पत्ता,
और ब्रह्मकमल बनकर गुमसुदा रहा..।

मैं पतंगा आग का
जला और राख हो गया ।

प्रशांत सोलंकी
नई दिल्ली-07

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