हमारे गाँव में…
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मुझे ले चल रे मन हमारे गाँव में….
वही गंगा किनारे पीपल के छाँव में…
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वही गांव के मजे जब होती गर्मी की छुट्टी,
जाते थे घर आती थी दादी की चिट्ठी।
झूले के लिए पेड़ पर बँधती थी रस्सी,
धूल से धूमिल तन से लिपटी मिट्टी।
दोस्तों संग खेलना कंचे और कबड्डी,
गिरते थे, पड़ते थे चाहे टूट जाये हड्डी।
सहेलियों संग खेलना चिक्का गोटी,
मन को कितना भाता था खेल लुकाछिप्पी।
जहाँ सुनते थे कहानी अम्मा की गोद में…
खुली आसमाँ के नीचे तारों के छाँव में….
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मुझे ले चल रे मन हमारे गाँव में …
वही गंगा किनारे पीपल के छाँव में…..
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रंग बिरंगी चिड़ियों की झुंड चहचहाती,
तलाब में बगुलों का एक टक पकड़ती मच्छी।
सरसों के खेत में पकड़ते थे तितली,
भागते थे पीछे-पीछे चेहरे पर थी खुशी।
खाते थे तोड़कर कच्ची मटर की फली,
सड़क किनारे उगे तीन पत्तीवाली खट्मिट्ठी।
नमक लगाकर अमिया कच्ची पक्की,
बिना हाथ धोये ही फल और सब्जियी।
दूर नदी में मछली पकड़ते मछुआरे नाव में…
बालपन की वो पावन – सी ठाव में….
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मुझे ले चल रे मन हमारे गाँव में…….
वही गंगा किनारे पीपल के छाँव में……..
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दादी के कुर्ते में होती थी जेबी,
वो मीठे गुड़ की पकाती थी जलेबी।
धोती-कुर्ता में दादा जी के काँधे पे लाठी,
आँगन में बैठते थे बिछाकर के खाटी।
गाय-बैल के चारे के लिए काटी जाती कुट्टी,
प्यासे मवेशियों को देते थे पानी भरी बाल्टी।
लाज की घुघट में लिपटी हुई दुल्हन नवेली,
पहने पायल,बिछुआ,झाँझ और हँसुली।
जहाँ दुल्हन लगाती है महावर पाँव में…
प्रीत की डोर बाँधे अपनेपन के भाव में…
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मुझे ले चल रे मन हमारे गाँव में…
वही गंगा किनारे पीपल के छाँव में….
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गाँव में जब भी होती थी मकरसंक्राती,
कंसार में भूंजे जाते थे भूंजा और मूढ़ी।
आँगन में औरतें खुद ही चूड़ा कुटती,
तरह-तरह के लाई बनाती गीत गाती।
खाते थे दही-चुड़ा संग गुड़ की पट्टी,
गुड़ तिल से बने तिलकुट और रेवड़ी।
बच्चे बड़े सभी करते हैं पतंगबाजी,
एक दूसरे से लगाते थे हारा बाजी।
भेजे जातें थे उपहार एक गांव से दूसरे गांव में…
रिश्तेदारों के संग सुकुन भरे प्यार के बहाव में….
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मुझे ले चल रे मन हमारे गाँव में……
वही गंगा किनारे पीपल के छाँव में……..
????—लक्ष्मी सिंह ?☺