हमराही
हमराही बन तूम्हारे साथ चलना चाहती हूँ।
प्रिय मैं मंत्र मुग्ध हो तुम में बसना चाहती हैं।
भान ना हो जहाँ मुझे कुछ एक ऐसी,
दुनियाँ तेरे साथ बिताना चाहती हूँ।
तुम ओस सी बूँदों से मुझ में समा जाना।
मैं हरी खिली दुब सी हो जाना चाहती हूँ।
अंबर के उस लाल क्षितिज मे बन के लाली
मैं तुझ में मिल जाना चाहतीहूँ।
सुनो हमराही मेरे,सागर से गहरे हो तुम
मैं नदी सा तुम मैं मिल जाना चाहती हूँ।
शीप सी प्यासी हूँ ,मैं प्रियतम बन के
स्वाति तुझ में बस जाना चाहती हूँ।
तुम हो ज्वलित आग से तिष्ण
मै ज्योति बन जाना चाहती हूँ।
जिस पथ पर चलो तुम, ओ मेरे हमराही
मै उस पथ पर फूल बन बिछ जाना चाहती हूँ।
एक बूँद पसीने तऔर शिकन की ना आये तेरे माथे पर।
मैं खुशियाँ बन तेरे जीवन को महकाना चाहती हूँ।।
संध्या चतुर्वेदी
मथुरा, उप