हमनें भार समझ कर ढोये
केवल भार समझकर ढोये, किए न अंगीकार!
इसीलिए दिखते हैं रिश्ते, थके थके बीमार! !
हमने सिर्फ स्वार्थ को ओढा़, पीर पराई जानी कब!
झूठे गढे़ कुतर्कों आगे, सीख सत्य की मानी कब!
धृतराष्ट्र से महत्वाकांक्षी बनकर अंधे बने रहे!
रहे कर्ण के साथ सदा पर बने कर्ण से दानी कब!
नफरत बो कर सोचा हमने, उग आएगा प्यार!
इसीलिए दिखते हैं रिश्ते थके थके बीमार! !
गुणा भाग में लगे रहे बस लेकिन समझ न पाए हम!
क्या लेकर जाना है जग से क्या लेकर थे आए हम!
पाखंडी आडम्बरवादी बनकर घूमे इधर उधर!
अवसरवादी मनोवृत्ति की गठरी शीश उठाये हम! !
संबंधों को रहे समझते, समझौते व्यापार!
इसीलिए रिश्ते दिखते हैं थके थके बीमार! !
हीरा होकर भी तो पत्थर जैसा ही व्यवहार किया!
जिसको यहाँ नकद करना था सौदा वही उधार किया!
जो अवगुण थे जिन्हे दूर रखना था उनके पास रहे!
पत्थर को शिव माना शिव का जूतों से सत्कार किया!!
उपकृत होते रहे कभी पर किया नहीं उपकार!
इसीलिए रिश्ते दिखते हैं थके थके बीमार! !
प्रदीप कुमार “दीप”
सुजातपुर सम्भल