हमदर्द ढूंढते हो – डी के निवातिया
हमदर्द ढूंढते हो,
दर्द के साये में रहते हो, और हमदर्द ढूंढते हो,
बड़े नादाँ मरीज़ हो, खुद-ब-खुद मर्ज़ ढूंढते हो !!
खुदगर्ज़ी की जीती जागती मिसाल हो आप,
लगा कर फ़िज़ा में आग हवाएं सर्द ढूंढते हो !!
मिटा डाले है सूबूत तमाम ज़ुल्मो सितम के,
अब इस जगह पर निशान-ऐ-गर्द ढूंढते हो !!
क्या आदमी हो, अजीबो गरीब शौक रखते हो,
महफ़िल में आकर भी इंसान-ऐ-फ़र्द ढूंढते हो !!
चलती फिरती जिन्दा लाशें नजर आती है जहां,
उस कायर जाहिल शहर में जात-ऐ-मर्द ढूंढते हो !!
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डी के निवातिया