हमको क्या हो गया है
चेहरे पर अब वह स्वाभाविक मुस्कान
शर्म ,चेहरे की गुलाबी रंगत ,
जाने कहां गुम हो गई है
अब शर्म से,लोग मरते नहीं
ज्यादा जिंदा रहते है ,
वह मस्ती ,दिल खुशी ,सहज स्नेह
अदृश्य हो गए हैं,
लोग किस दुनियां में खो गए हैं ,
भाई भाई से , निदान ,समाधान नहीं
मिलने में हैरान होता है ,परेशान होता है
पहले एक दूसरे को बता दिया करते थे,
दिल की बातें ,लोग समझ लेते थे ,
पढ़ लेते थे ,जैसे हों खुली किताबें
विश्वास था , परमार्थ जैसा
घर में तो बिना कहे
एक दूसरे की बात ,दिक्कतें ,बीमारी
सबको सबकी समझ में आती थीं ,
अब आभासी दुनियां में
हम व्यस्त अस्त व्यस्त ,
जाने किधर जा रहे है
खुद को भी नहीं पता
संवाद शून्य ,
वाक्यों का स्थान लेते हुए शब्द ,
शब्दो का स्थान लेते हुए अक्षर
हम कहां से कहां पहुंच गए हैं ,
कौन सी दुनियां मे खो गए हैं
शायद हद से ज्यादा ,व्यवहारिक हो गए हैं।
अब हिचकी किसको आती होंगी
किसके लिए पता नहीं ,
भावनाएं शून्य, उलझनों का अंबार ,
घर में भी ऑफिस सी जिंदगी
फेसबुक, इंस्ट्राग्राम, ट्वीटर, गूगल पर खोजें जाते हैं
मित्र , हल, प्रेम ,खुशी
अपने को बंधक बनाकर ,
खुद मशीन बनकर ,
सम्मान आदर लिहाज ,मर्यादा के शाब्दिक अर्थ भी नहीं हैं पता ,
बाकी तो ठीक है ।
अपनों की याद,
अब किसे आती होगी
किसे रुलाती होगी
अब कौन, किसका सखा ,किसका साथी
साथ में छल,कपट ,गले तक स्वार्थी
विभीषण सुग्रीव , अहिल्या ,
अब कहां मिलते हैं इनके राम
रिश्ते अब रिसते नहीं है ,
जिन्दगी में, ज्ञान और समझ
कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है सभी में
हम शायद व्यावहारिक हो गये हैं,
आदमी आदमी में गुम
बनावटी मुस्कान कई मुखौटे
इंसान जाने कहाँ खो गये हैं!
इंसान जाने कहां खो गये हैं..=====