हनुमानजी जी का लंका में जाना माता सीता से मिलना
“हनुमानजी का लंका गमन और माता जानकी से मिलना”
बीच सिंधु एक निशिचरी छाया गहि खग खाय।
उड़त देख हनुमन्त को गहि छाया मुसुकाय।।
तुरंत खींच करि धरि मुख लीन्हा।हनुमत बिबस सोचि वह कीन्हा।
महाबीर तब कीन्ह प्रहारा, मस्तक फोड़ि सिंधु भए पारा ।।
सागर पार गये जब, देखा दुर्ग विशाल।
खड़ी लंकिनी द्वार पर, फाड़े मुख विकराल।
बोली भर कर दम्भ हृदय में कौन यहाँ आया?
जान नहीं प्यारी तुझको जो मरने को आया?
बजरंगी की एक मुष्टिका ने धूल चटा दी उसको।
हाथ जोड़कर बोली विह्वल ब्रह्मा जी के वर को।
राम दूत के दर्शन पाकर मैं तो धन्य भई।
मुक्ति-काल निकट है असुरों का जान गई।
सूक्ष्म रूप धरि के हनुमाना, कीन्ह प्रवेश सुमिर भगवाना।।
देखा जाय सबन्ह घर माहीं, माता नहीं दीखि सकुचाहीं।।
जाय ठाढ़ भए रावण भवना, सुंदर भव्य जाय नहिं बरना।।
निद्रा लीन देखि दसशीसा, झांकि गए चुपचाप कपीसा।।
हृदय विचारत बाहर आये, राम भगत विभीषण जागे।।
जाय मिलूँ हरि भक्त से, मन मे करें विचार।
भक्त मिले से सफल हों सारे दुष्कर कार्य।।
कुशल पूछि फिर पता बताई, पहुंचे जहां जानकी माई।।
बदन छुपाय बैठ अशोका, सजल नेत्र मातु अवलोका।।
बजे नाद रावण जब आया, सीता को बहुत धमकाया।।
साम दाम भय भेद देखावा, मूढ़ मती आपन जश गावा।।
सब प्रपञ्च करि रावण हासा, सीते है अवसर एक मासा।
नीर बहत नयन नहिं सूखा, माता की स्थिति जो देखा।।
देख असुर की माया भारी, हनुमत भजत अवध बिहारी।
विटप बैठ सब कथा सुनाई, माता सोच रहीं को आई।।
व्याकुल भईं सुन राम कहानी, पूछीं कौन सुनावत बानी।।
प्रभु मुद्रिका दिए गिराई, देखत सिया हृदय हरसाईं।।
कूदि प्रगट भये जोड़े हाथा, मात दास मैं रघुकुल नाथा।
लघु काया देखत हैं माता, मन ही मन संसय उपजाता।
बिबिध प्रकार मातु समुझाई, लघु गरिमा सब रूप दिखाई।।
तब कीन्हा मातु विश्वासा, राम सन्देश सुनै उल्लासा।।
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