हत्या, आत्महत्या, सियासत
कहीं आत्महत्या भी रहती है सुर्ख़ियों में,
और कहीं हत्या गुम हो जाती बेरुखियों में।
सुविधा देखी जाती कि हत्या या आत्महत्या है,
सियासत भी होती की आत्महत्या नहीं ये हत्या है।
कारण आर्थिक अभाव का बढ़ता असहनीय बोझ,
ग़लत नीतियों के कारण यहाँ मरते किसान हर रोज़।
आत्महत्या के कारणों की क्यों फिर खोज नहीं होती,
आख़िर ऐसी मौत पर भी आत्मा उनकी क्यों नहीं रोती।
उठाता है ये कदम, जब कोई बिलकुल बेबस हो जाता है,
आत्महंता कोई यूँ अनायास ही नहीं बन जाता है।
मरने वाला तो बेबसी का शिकार हमेशा बनता है,
बेबसी को जो पैदा करे वास्तव में वो ही हंता है।
बात मौत की नहीं संवेदनाओं की सियासत की होगी,
नीतियाँ और प्रस्थितियाँ कब किसान के हक़ की होगी?