हतभाग्य
कई बार इंसान चाहते हुए भी किसी और की मदद नहीं कर पाता। छोटी सी मदद भी बड़ी बन कर सामने ऐसे रास्ता रोक लेती है कि वो बहुत ही बड़ा लगने लगता है। उस समय इंसान एकदम से असहाय और विवश हो जाता है।
यही तो हुआ था राधिका के साथ। कितनी बड़ी विडंबना थी कि वह अपने आँखो के सामने देखते हुए भी सब कुछ जानते सुनते हुए भी न चाहते हुए भी उसी कतार में खड़ी हो गई।
अभी उसे तीन महीना ही हुए थे कॉलोनी में किराए के मकान में आए हुए। उस कॉलोनी की खासियत थी कि बहुत से GDA के मकान खाली थे।ऐसा लगता था कि भूत लोट रहे हों। घुप्प अँधेरा,सुनसान होने के कारण कुछ- कुछ भयावह भी लगता थ। कुछ लोग खाली फ्लैट्स को कब्ज़ा करके चौड़े होकर रह रहे थे।कई सालों से परिवार सहित। कोई सुध लेने वाला नहीं था। उस एरिया में थोड़े कम किराए में फ्लैट्स मिल जाते थे। तभी तो राधिका नोएडा जैसे महँगे स्थान को छोड़कर वहाँ किराए पर रहने आई थी। कुल मिला कर पाँच या छः परिवार ही लीगली तरीके से अपने फ्लैट्स में या किराए पर रह रहे थे। कब्ज़ा करके रहने वालों में कुछ जीडीए के फोर्थ क्लास के कर्मचारी, दिहाड़ी पर काम करने वाले मज़दूर वर्ग तो कुछ सब्जी के ठेले वालों का परिवार तो कुछ ऐसे परिवार थे,जो घरों में चौका बर्तन करके अपना जीवन यापन कर रहे थे। कुछ फ्लैट्स में केवल कुत्ते बिल्ली जैसे जानवर अपना बसेरा बना लिए थे। कई बार राधिका के घर कोई मिलने जुलने वाले आते तो उन खाली पड़े अंँधेरे घरों को दिखा कर उसका बेटा डराते हुए मज़ा लेता था,देखो! ये सब भुतहा है। अचानक शाम के समय तो चमगादड़ भी दिख जाते थे। सचमुच में शाम के बाद बहुत देर तक अपनी बालकनी में खड़े रहने में घबराहट सी होती थी। स्ट्रीट लाइट भी तो नहीं थी।
मज़दूर वर्ग और सब्ज़ी वालों की स्थिति बहुत ही बुरी थी। उन घरों से अक्सर लड़ाई झगड़े की तेज़ आवाज़ आती थी। पीने पिलाने के मुद्दे पर या पानी को लेकर, कभी कभी तो बिना वजह भी रोना-चिल्लाना, मार पीट लड़ाई झगड़ा और शोर शराबा होता रहता था। रात में विशेष रुप से। अक्सर रात में पुलिस वाले भी आ धमकते थे।
अक्सर कोई शिकायत कर देता था तो पुलिस उठा कर ले जाती थी। कई बार फ्लैट्स के वाशिंदे उनके कारण होने वाली परेशानी से तंग आकर रिपोर्ट लिखवा देते थे। पुलिस आती निकालने की धमकी देती लेकिन उनकी साँठ गांँठ ऐसी होती कि केवल दिखावे का डाँट- डपट करके चली जाती।
उस कॉलोनी महिलाओं में राधिका ही पब्लिक स्कूल में अध्यापिका की नौकरी करती थी। स्कूल काफ़ी दूर होने के कारण सुबह पौने छः बजे निकल कर शाम तक ही आ पाती थी। इसलिए कॉलोनी में हो रहे किसी भी गतिविधि का प्रत्यक्ष रुप से साक्षी नहीं होती थी। इतना ज़रूर था कि उसे कोई न कोई बता देता था,विशेष रुप से काम वाली से पता ज़रूर चल जाता था। वैसे स्वभावत: कॉलोनी की गतिविधियों में उसकी कोई रुचि नहीं थी। हां! आमने सामने और अगल बगल के बच्चों को पढ़ाई लिखाई से संबंधित मदद करने के कारण बच्चों के साथ उनकी मम्मियों से जान पहचान हो गई थी। थोड़ी बहुत बातचीत उनसे आते- जाते रास्ते में खड़े- खड़े हो जाया करती थी । राधिका के पास समय ही कहांँ था कि वो बैठती किसी के पास।
एक दिन स्कूल जाते समय सीढ़ियों से नीचे उतरते ही रोने की आवाज़ सुनाई पड़ी, चलते चलते किसी से पूछने पर पता चला कि सब्ज़ी वाली का पति मर गया। राधिका ने कुछ भी और न जानने की जिज्ञासा दिखाए बिना ही स्कूल चली गई। उस दिन शनिवार होने के कारण जल्दी छुट्टी हो गई थी। इसलिए उस दिन उसका दुपहर में ही आना हो रहा था। कॉलोनी में घुसते ही गजब की भीड़ लगी थी। सभी रहनवासी अपनी -अपनी बालकनी से आधा धड़ लटकाए खड़े थे। मानो कोई बारात देख रहे हों। राधिका भी बिना इधर -उधर देखे चुपचाप घर चली आई। घर में घुसते ही काम वाली आ गई बहुत ही हिकारत और भरपूर संवेदना से लवरेज कहने लगी चि चि चि क्या ज़माना आ गया है!किसी ने कफ़न तक ना दियो। उसने बताया कि सब्ज़ी वाले की पत्नी ने पूरी कॉलोनी में कफ़न के लिए चंदा माँगा लेकिन किसी ने दिया तो कुछ नहीं बल्कि सुनाया भी सबने। जैसे तुम लोग मुफ्तखोरी में रहते हो वैसे मरते भी हो। ज़रा सी खाँसी में कोई मरता है क्या? राधिका अब सचेत हुई उसके कान खड़े हो गए। वो बोले जा रही थी कि ठेले की सब्ज़ी सारी सड़ गई रात भर में गर्मी के कारण। सब्ज़ी फेंक कर ठेले पर बोरे को काट कर कफ़न डाल कर शमशान ले गए हैं। सब तमाशा देख रहे थे, लेकिन कोई आगे नहीं बढ़ा एक रुपया भी किसी ने ना दिया। उस दिन राधिका हर हाल में कुछ सुनना नहीं चाहती थी, चाहती थी तो केवल कुछ रुपया 100 रुपए ही सही भिजवा दे। लेकिन हतभाग्य, कि उसके पास 100 रुपए भी नहीं थे कि वो दे पाती। बैंक इतनी जल्दी जाकर लाना संभव नहीं था। वक्त और भाग्य की विडंबना तो देखिए कि राधिका को भी उसी पंक्ति में शामिल होना पड़ा। बोरे के कफ़न में वो 5 रुपए तक नहीं लगा सकी। विवश होकर उसने अपने बेटे को फ़ोन किया, बेटे ने बताया कि मैंने देखा लेकिन दुर्भाग्य कि मेरे पास भी उस समय नहीं था क्या किया जा सकता है? परेशान मत होइए। राधिका के पास पूरे घर में चहलकदमी करने और मानसिक रुप से थकने के अलावा कोई चारा नहीं था। उसे लग रहा था कि आज 100 का पत्ता भी इतना बड़ा हो गया है? आज हाथ में जो भी जितना भी होता हम दे देते। लेकिन कुछ भी कर पाने में पूरी तरह असमर्थ थी। कुछ भी और नहीं सोच पा रही थी। बस बेचैन थी। बाद में पता चला कि मरने वाले को टीबी थी जिसकी वो दवा नहीं करवा पा रहा था। आज भी वो घटना राधिका के दिमाग़ में हतभाग्य बन कर बेचैन करता है। वो सोचती है कि बोरे के कफ़न में जाने वाले के साथ -साथ पूरी कॉलोनी और वो ख़ुद भी हतभागी है।
मंजुला श्रीवास्तवा
गाज़ियाबाद