हठ धर्मी बनाना
हठ धर्मी बनना मनुज, समझो एक विकार।
कुंठित होती सोच है,उपजे कटु व्यवहार।।
मानव तजकर सत्य को,करता बहु अभिमान।
कर्म स्वयं के सत समझ,तोड़े उचित विधान।।
राम चरित मानस लिखा, हट्ठ धर्मिता सार।
सूपनखा जिद पे अड़ी,पाने को प्रभु प्यार।।
नीति विरोधी पंथ था, सूप नखा का प्यार।
सूप नखा की सोच में,छाया कुटिल विकार।।
राम लखन को देख कर,किया दिखावा प्यार।
मंशा समझे राम जी,किया तुरत इंकार।।
चली लखन की ओर वह,मोहक कर शृंगार।
क्रोध लखन का था बढ़ा, किया नाक पर वार।।
नाक कटी भू पर गिरी,बही रक्त की धार।
सूप नखा अब तो चली, भ्राता रावण द्वार।।
ओम प्रकाश श्रीवास्तव ओम