दिल की सफाई
उन्होंने खुद ही बोलना-चालना और मिलना-जुलना बंद कर दिया था। सीधे तौर पर बात कुछ भी नहीं थी, बस यूं ही किसी के पीछे, यानी भला बनने की खातिर। अभी कुछ दिन पहले शाम की ही तो बात है। मैं बैठा हुआ बच्चों को खाना खिला रहा था, बच्वों की मां रोटियां बनाकर दे रही थीं। दोनों मियां-बीवी बड़े खुलूस के साथ आकर बैठे। हालचाल लेने के बाद कुछ इधर की, कुछ उधर की… कुछ दुनियादारी की बातचीत करने लगे।
यह देखकर मैं हैरत में पड़ चुका था… इंसान रंग बदलने में किस तरह गिरगिट को भी मात कर देता है। महसूस ही नहीं हो रहा था कि यह वही इंसान है जो मुझसे कई साल से बातचीत तो क्या सामने आने पर नजर मिलाना भी पसंद नहीं करता था। खैर… हम मियां-बीवी ने अपने जमीर के मुताबिक मेहमान नवाजी में कोई कोताही नहीं की। कुछ देर बैठने के बाद उन्होंने अपने आने का मकसद बताया। बोले-अल्लाह ने हज की नेअमत से नवाजा है, हमसे कोई गलती हो गई हो तो माफ करना और दुआ करना कि खैरियत के साथ वतन वापसी हो। नॉन स्टॉप उन्होंने बहुत कुछ कह डाला।
अब बारी मेरी थी… “क्या आपको लगता है कि आपसे कोई गलती हुई है…? और इस गलती माफी इस वक्त ही क्यों? हज करना फर्ज किसी पर एहसान है? नहीं न, तो हम अपने फर्ज को अदा करने से पहले किसी से माफी क्यों मांगें? अगर यह ज़रूरी है तो नमाज पढ़ने से पहले, रोज़ा रखने से पहले या किसी को ज़कात देने से पहले माफी क्यों नहीं मांगते? फर्क सिर्फ यही है न, रोजमर्रा की फर्ज अदायगी बगैर रकम खर्च किए हो जाती है, जबकि हज के वक्त रकम खर्च करके सनद और शोहरत दोनों मिलेंगी। डर सिर्फ यही रहता ही कि भारी-भरकम रकम खर्च करके फर्ज अदा हो रहा है, इसलिए कोई कोताही न रह जाए… रही बात दिल साफ करने की तो हमें अपना दिल हमेशा साफ रखना चाहिए…।” इतने सारे सवालों और बातों के बाद कुछ देर सन्नाटा, फिर विदाई।
@ अरशद रसूल