हंसी नहीं आई
हंसना तो चाहा मगर हंसी नहीं आई
मेरे लबों पर जाने क्यूं चुप्पी छाई।
दूर-दूर तक जहां मेरी नजर गई
हर शै में मुझे वो ही नजर आई।
अब, घर सुनसान, उपवन वीराना-सा है
उसके जाने से जर्रे-जर्रे में मायूसी छाई।
दिन कटता है ना अब रात गुजरती है
इन आंखें में उसकी ही सूरत नजर आई।
क्या बताउं वक्त-ए-रूखसत अ ‘दुर्गेश’
न चाहकर भी आंख मेरी भर आई।