हँसी!
बचपन की यादों की पोटली मिली
जिसमें सम्भाल कर कई क़िस्से रखे थे
और रखी थी मुस्कुराहट की कई लकीरें
जो चेहरे पे दिखाई देती थी कभी
रखा था सम्भाल कर पोटली संदूक में
खोला संदूक तो बिखर पड़े हंसी-ठहाके
इधर उधर उचट कर कितने सारे
पकड़ने की कोशिश किए तो
मूठ्ठी में समा नहीं पाए
दूर कहीं जा कर छिप गए
हथेली में मेरे नहीं आए
जैसे रूठ गए हो वो बेपरवाह हँसी
ग़ुस्सा हो मुझसे कि उनको भूल गए
फ़ुरसत के क्षणों में याद करने का वादा करके
मुकर गए हो, तोड़ दिए हो वादे वो सभी
ज़िंदगी के उधेर बुन में मुँह मोड़ लिया हो उनसे
चिंता की लकीरों में मुस्कान की लकीरें मिट गई
शायद दूर मुझसे सुकून वाली हंसी हो गई
नम हो गई आँखें मेरी
दूर जाते देख बहुत सी हंसी
जो कभी मेरी हुआ करती थी
बिन बात जो मुँह पे सजती थी
बिन कहे मेरा श्रिंगार करती थी
हर कदम साथ चलती थी
मेरी दुनिया सजाती थी
अभी मेहमान बन कभी कभार
आ जाती है चेहरे पे एक आध बार
वो भी लगती है माँगी हुई
ज़बरदस्ती जैसे चेहरे पे सजायी हो
उधार माँग कुछ वक्त के लिए लायी हो
बनावटी हंसी ज़ाली चेहरे पे सजायी हो
दर्पण में सब दिखते है
सामने जब स्वयं को ख़ुद दिखा
हंसी के पीछे का खोखलापन दिखा
दो चेहरे दिखे
एक मुस्कुराता जो झूठा था
और एक चिंता में
जो मुझे ख़ुद सा लगा
लीपा पोती की चेहरे को सजाने के लिए
झूठे मुस्कुराहट को सच बनाने के लिए
या फिर झूठ-सच के भेद मिटाने के लिए
पर हंसी कहाँ आई मेरे पास
मूठ्ठी से छिटक दूर भाग गई
कहीं कोने में छिप मुझ पर हंस रही थी
हाऽऽऽऽ हाऽऽऽऽऽ हाऽऽऽ हाऽऽऽऽ।