“हँसीन लम्हों की यादें और ये ख़त”
“हंसीन लम्हों की यादें और ये ख़त”
ख़त का ज़िक्र चलते ही पिया के साथ गुज़ारे कुँवारे पलों की याद ताज़ा हो जाती है। ये वो सुहाने दिन थे जब हम राजस्हाथान की रेतीली रजत चाँदनी में, हाथों में हाथ लिए, एक-दूजे के साथ बैठे जीने के अनगिनत सपने सँजोते हुए पूरी रात तारों की छैंया में बिता दिया करते थे और जब पेड़ों से गिरती रवि की स्वर्णिम उषा हमारे तन को गुदगुदा कर भोर होने का संदेश देती तो मीठी मुस्कान, झेंपते हुए नयन, स्पंदित देह , माँ के हाथ का नास्ता हमें दैनिक क्रियाकलाप की याद दिलाकर झकझोर देता। हम तैयार होकर फिर फ़िल्म देखने चल पड़ते। एक थिएटर से दूसरे थिएटर तक ,मंदिर से उपवनों तक का सफ़र, चाट -पकौड़ी, मौज़-मस्ती करते समय रेत की तरह मुट्ठी से कब फिसल जाता कुछ पता ही नहीं चलता था। सगाई के बाद पिता के आकस्मिक निधन के कारण नौ माह तक ज़ुदाई की लंबी खाई को हमने प्यार भरे ख़तों से पाटा था। ये ख़त हमारे जवाब- सवाल में शायरी से रंगे हुआ करते थे जिन्हें फ़ुर्सत पाकर आज भी हम रोमांचित होकर पढ़ते हैं और बीते हुए पलों को याद कर फिर से जवानी के खुमार में डूब कर शरारतें करते कर बैठते हैं– आगोश में समाए ख़त पढ़ते हुए गालों पर मचलती अँगुलियों को काटना, सीने पर चुंबन देकर बालों को सहलाना,भीगी ज़ुल्फों से चेहरे पर पानी छिड़कना ,कसकसा कर अधरों को चूमना फिर एक-दूजे के हो जाना। इत्तफ़ाक से आज एक बार फ़िर मैं साजन की बाहों में सिमटी, लिपटी ख़तों के ज़रिए यादों के पुराने मंज़र तय कर रही हूँ। पिया के साथ की मधुरिम अनुभूतियों को चंद पंक्तियों में पिरोकर यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ।
मुझे बाँहों में भर ख़त को सुनाना
याद आता है वो गुज़रा ज़माना
भीगी पलक को अधरों से छुआना
लोभित भ्रमरों से रसपान कराना
देकर चुंबन यूँ तन-मन दुलराना
प्यासी दरिया में ज्यूँ अगन लगाना।
मुझे बाँहों में भर ख़त को सुनाना
याद आता है वो गुज़रा ज़मानना।
डॉ. रजनी अग्रवाल “वाग्देवी रत्ना”