हँसते जख्म
निज कल्पनाशक्ति का
सृजनात्मक उपयोग किया,
इस असार जीवन को जीने
का अभिनव परयास किया।
ज्यों- ज्यों जीवन आगे बढ़ा
सपनों को लगा पंख मिलने,
आहिस्ता मद का हुआ प्रवेश
जीवन मदमस्त लगा खिलने।
स्वाभिमान का अनुगामी
समझा नही प्रकृति का खेल,
खेल रहा था मैं जो निज से
वह सार्वभौम ईश का खेल।
ऐसो का होता जो हस्र
रहा कंस या लंकापति का,
कुछ ऐसी ही आहट आयी
संभला खेला देख समय का।
तब तक देर बहुत हो चुकी
हुआ संभलना अब मुश्किल,
वारि सरों के ऊपर हो गयि
समय हमारा हुआ संगदिल।
जिन जख्मों ने जीवन में
चलना संभल सिखाया था,
उन जख्मों को हँसते देख
छलनी कलेजा हो आया था।
तार-तार हुए स्वप्न हमारे
रोगों से तन त्रस्त हुआ,
निर्मेष उपेक्षा निज की निज से
आज बहुत ही भारी पड़ा ।
अंत समय कुछ हाथ न आया
काश समय से चेते होते
बेशक पुनः शीर्ष पर होते
आसमान से गिरते गिरते।