*सफ़र मंज़िल का…*
पत्थर पर लिखी इबारत हैं, यूँ मिटने वाले हम नहीं !
तोड़ सके जो पत्थर को, काँच में इतना दम नहीं !!
हर मुश्क़िल को हँसकर झेलेंगे, डरने वाले हम नहीं !
बेशक़ तू कर ले लाख़ सितम, टूटने वाले हम नहीं !!
गिरकर फ़िर से उठ जाएंगे, यूँ हारने वाले हम नहीं !
मुश्क़िलों ने पाला है हमको, बिख़रने वाले हम नहीं !!
हर क़दम खाया है धोख़ा, मग़र डगमगाए हम नहीं !
खो चुके सब कुछ, अब कुछ भी खोने का डर नहीं !!
दर्द बहुत होता है मग़र, अब ये होती आँखें नम नहीं !
दिया दर्द मुझे अपनों ने ही, कोई ग़ैरों का ये कर्म नहीं !!
सब हट चुके आँखों से पर्दे, रहा अब कोई भ्रम नहीं !
मिट जाएं तेरी चोटों से हम, इतने भी हम नरम नहीं !!
अड़ा तू चाहे लाख़ रोड़े, ज़िंदगी ठहरने वाले हम नहीं !
हर तूफां से टकरा जाएंगे, अब बख़्शने वाले हम नहीं !!
सफ़र मंज़िल का जारी रहेगा, यूँ रूकने वाले हम नहीं !
मंज़िल भी कह देगी नीलम, तुमसा कोई हमदम नहीं !!