स्वीकारा है
जो सब कुछ आरोप लगाया तुमने,
स्वीकार किया उसे हमनें।
आरोपों से मैं भरता रहा,
किसी से मैंने कुछ न कहा।
गलती अपनी न जान सका,
फिर भी…..!
आरोपों को सहता रहा।
धीरे-धीरे मैं गिरता रहा,
जान गई पूरी दुनियां ज़हां।
फिर भी…..!
न मैंने अपनी मुँह खोली
क्योंकि, नहीं करना चाहता,
मैं किसी से रणभेरी।
सहते-सहते.
टूटने लगी विश्वास रूपी शरीर,
फिर भी…..!
नहीं करता उसे जलील।
क्योंकि, करता हूं सम्मान तुम्हारा,
बहुत कर लिया अपमान हमारा।
तुम्हारी चुभी बातों ने,
ले ली मेरी जान।
आखिर बना लिया तुमने
अपने को महान।
©® डॉ. मुल्ला आदम अली
तिरुपति – आंध्र प्रदेश