स्वार्थ
‘स्वार्थ’
इंसान स्वार्थ में अंधा हो कर बेईमान हो गया है,
आज की चकाचौंध में आदमी का ईमान खो गया है।
स्वार्थ है तो फिर रिश्ते क्या होते हैं?
रिश्तों का बोझ तो बेवक़ूफ़ लोग ढोते हैं।
हर कर्म में नफ़ा नुक़सान का ही स्वार्थ हैं,
व्यक्त अर्थ कुछ और अव्यक्त कुछ और अर्थ है।
आदमी को नैतिक पतन का मंत्र पा गया है,
कथनी और करनी में इतना अंतर आ गया है।
लेकिन एक शक्ति है जो ऐसे में भी काम करती है,
जिस के आगे धूर्त की धूर्तता भी पानी भरती है।
ईमान, सरलता और सहिष्णुता की शक्ति,
और उनका बुरा वक्त गुजर जाता है रति रति।
और वक्त आने पर घड़ा पाप का फूटता ज़रूर है,
यही उस ईमान और सहिष्णुता की शक्ति का नूर है।
कोई लाख कोशिश करे, हाय ईमान की रंग ज़रूर लाती है,
वो फिर बेईमान और स्वार्थी के लिए श्राप बन जाती है।
फिर बेईमान को पछतावे का वक्त नहीं मिलता,
ऐसे मुरझता है चमन जो कभी फिर नहीं खिलता।