स्वार्थ !
इंसान की फितरत अजीब है,
आज जो दोस्त है,
कल वही होता रकीब है।
अपने फायदे के लिए,
वो कुछ भी कर सकता है।
स्वार्थ साधने के लिए,
किसी हद तक गिर सकता है।
ऊपर से भले मुस्कुराए,
अंदर ही अंदर खूब जलता है।
मीठी बात भले सुनाए,
मन ही मन साजिश करता है।
उसका लाभ जो होता,
बिना विलंब दल बदलता है।
नुकसान जो होता दिखे,
दोष औरों पर वो मढ़ता है।
स्वार्थ के धागे से ,
बुने गए उसके सब लिबाज़ हैं।
लाभ और हानि वाले,
उसके जीवन के सारे साज़ है।
अपना पराया कोई नही,
ये संसार तो अब हुआ व्यापार है।
भावनाओं का भाव नहीं,
धन दौलत देखो हुआ आहार है।
ईश्वर की पूजा में भी होता स्वांग,
भक्ति में भी नही रहा अब अनुराग।
जीवन से खो रहा प्रेम और परमार्थ,
अब तो सबके मन में बस है स्वार्थ।