-स्वार्थ से परे
मैं फिर खोजती हूं
वो बीता बचपन अपना..
जिन आंखों में था कंच जीतने का सपना,
वक्त की धारा में ना जाने कहां खो गया,
जवानी और जिम्मेदारी की तह में दफन हो गया,
काश! मैं बड़ी ना होती,
तो मां की गोद में चैन से होती,
लोरी गाकर वो सुलाती मुझे
गर मैं जरा भी रोती,
ना फ़िक्र होती आगे पढ़ने की
ना हसरत होती आगे बढ़ने की,
बस एक ही इच्छा होती
बचपन वाले झूले पर चढ़ने की,
पर स्वार्थ से परे जब मैं सोचती हूं
क्यों मैं अपना बचपन खोजती हूं,
मेरी मां का भी कोई बचपन था
उसने भी कुछ खोया था,
जिसको मां ने कुर्बान कर
हर वक्त मेरे लिए अपनी आंखों में सपनों को संजोया था।
– सीमा गुप्ता, अलवर ( राजस्थान)