स्वार्थ के खेल
हमारा अपना स्वार्थ इतना बड़ा हो जाता है कि हम कुछ चंद पैसों कि वस्तु का मोह नहीं त्याग पाते । यही मोह रिश्तों में दूरियों का कारण भी बनता है । कुछ लोग होते हैं जो इस तरह के व्यवहार को तवज्जो नहीं देते लेकिन एक के बाद एक ऐसी ही लगातार चलने वाली प्रक्रिया उनका भी संबल तोड़ ही देती है । आख़िर है तो वो भी मनुष्य ही न क्या करे । परिवार से सीखे संस्कार , गुरुओं से मिले ज्ञान और समाज में रहते हुए सीखा समायोजन उसे खूब अच्छे से निचोड़ता है लेकिन उसका स्वाभिमान उन सब के बीच कितनी बार पिसा होगा । उस वक्त की पीड़ा का अंदाज़ा लगाना मुश्किल होता है ।
क्या अजीबो गरीब स्तिथि बनती है वह न तो किसी से कुछ कहते बनता है और न ही स्वयं को शांत किया जाता है । इस टकराहट पूर्ण स्तिथि से जो निकल गया समझो जीना सीख गया । अपने ही याद दिलाते रहेंगे की आप में क्या कमी है लेकिन उस याद दिलाने के पीछे की मनसा क्या है ये आपको पहचानना है । आप में क्षमता है तो पहचान लेंगे और स्वयं को गहरे गर्त में जाने से बचा लेंगे अन्यथा परिणाम तो जो होना है वो जग जाहिर है ।
आजकल बहुत बड़ा खेल चलता है , भावनाओं को तार – तार करने का । यहां पर भी संभलना आपको है । संभल गए तो ठीक नहीं तो आपकी भावनाओं की आलू चाट बनाकर चटखारे लेकर खाने वाले आपके ही इर्द गिर्द रहते हैं और आप आंख के अंधे नाम नयन सुख वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए नजर आते हैं ।
ईश्वर ने हमें बुद्धि, विवेक और जुबान दी है । जिससे हम समक्ष प्रस्तुत व्यक्ति की पीड़ा का हल निकालने का प्रयास कर सकतें हैं । विवेकानंद जी ने भी कहा है कि – या तो प्रस्तुत व्यक्ति की पीड़ा का हल निकालने का प्रयास कीजिए और आपसे नहीं होता नजर आता है तो हाथ जोड़ ले , उसे भ्रमित न करें । बस सीधा सा जीवन है – अपने कर्म पर अधिकार रखिए । सदभाव से किया गया कर्म अवश्य ही फलीभूत होता है और दुर्भावना से किया गया कर्म एक न एक दिन स्वयं के लिए ही कष्ट का कारण बनता है । सब कुछ जानते बूझते भी कितने ही लोग यही सब तो करते नजर आते हैं । आश्चर्य कि बात यह है कि इन सबका परिणाम जानते हुए लोग ऐसा करतें हैं ।
कर त्याग निज हित स्वार्थ का ।
स्वयं में भाव भर परमार्थ का ।
कुछ राह करें आसान वो ,
पथ ले अभी सेवार्थ का ।
शंकर आँजणा नवापुरा धवेचा
बागोड़ा जालोर-343032