*स्वार्थी मानव*
स्वार्थ मे जन्न्मा स्वार्थी मे पनपा स्वार्थ से उसका नाता है। बिन स्वार्थ के कैसे जीये
उसको यह नही भाताहै॥ छुदा के खाती स्वार्थ मे रोया , स्वार्थ मे वह मुस्काता है स्वार्थ की राहो पे चल करके अपनो को भरमाता है॥ पौढ हुआ स्वार्थ की दुनियॉ मे स्वार्थ ही पिता माता है । हित मित साथी रिस्तेदार को स्वार्थ मे नाच नचाता है ॥ अपना बन जाय गैर का बिगणे स्वार्थ मे अन्धा बन जाता है। स्वार्थ मे जीते-जीते एक दिन अपनो से नजर चुराता है ॥ विखर गया सारी दुनिया जब स्वार्थ मे वह पश्चाता है । सारी दुनिया जान गई यह स्वार्थी मानव कहलाता है ॥
रचनाकार_-विजय कुमार शाहनी
विधा-कविता