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23 Dec 2020 · 2 min read

स्वामी श्रद्धानन्द

स्वामी दयानन्द के परम शिष्य, गुरुकुल इंद्रप्रस्थ, गुरुकुल कुरुक्षेत्र एवं गुरुकुल कांगड़ी विश्विविद्यालय, हरिद्वार के संस्थापक, शुद्धि आन्दोलन के प्रणेता, अंग्रेजों की संगीनों के आगे वक्ष खोलकर खड़े हो जाने वाले निर्भीक सन्यासी और आज तक के इतिहास के अकेले ऐसे व्यक्ति जिन्होंने दूसरे धर्म का होते हुए भी दिल्ली की जामा मस्ज़िद में वेद मन्त्रों पर व्याख्यान दिया। उस महान बलिदानी, दिल्ली के बेताज बादशाह स्वामी श्रद्धानन्द को जन्म दिवस पर शत्-शत् नमन्……..

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ऋषि दयानन्द का परम शिष्य,
वह श्रद्धानन्द निराला था,
ऋषि आज्ञा में अपना जीवन,
जिसने अर्पित कर डाला था।
अपनी हर एक बुराई को,
ऋषि के वचनों से छोड़ा था,
“कल्याण मार्ग का पथिक” बना,
कितनों का जीवन मोड़ा था।
अपनी सारी संपत्ति को,
ऋषि मिशन हेतु कर दान दिया,
अपने तन को, मन को, धन को,
कर देश के हित कुर्बान दिया।
चट्टान सरीखा दृढ़ था वो,
फूलों के जैसा कोमल था,
मन में ऋत भाव समेटे वो,
बालक के जैसा निश्छल था।
ऋषि दयानन्द के बतलाये,
वेदों के पथ का राही था,
सर्वदा अमिट जो रहती है,
वह उसी तरह की स्याही था।
दिल्ली में गोरों के सम्मुख,
जब उसने वक्ष अड़ाया था,
उसका वह साहस देख-देख,
हर एक गोरा थर्राया था।
उसके अदम्य साहस ने ही,
संगीनों का मुख मोड़ दिया,
आताताई अंग्रेजों के,
सारे घमण्ड को तोड़ दिया।
वेदों के पुनः प्रचार हेतु,
थे गुरुकुल उसने खुलवाये,
भारत का भाग्य जगाने को,
हर बाधा से वो टकराये।
जालियाँवाला के बाद नहीं,
काँग्रेस में साहस आया था,
तब अमृतसर में उसने ही,
फिर अधिवेशन करवाया था।
“सद्धर्म प्रचारक” के द्वारा,
उसने यह देश जगाया था,
अपने भारत में वह फिर से,
एक नई चेतना लाया था।
न आज तलक ऐसी घटना,
इतिहास में कोई पाई है,
जब एक हिन्दू ने मस्ज़िद में,
वेदों की गूँज सुनाई है।
धरमों के ठेकेदारों का,
उसने ही कलेजा फाड़ा था,
“त्वं ही नः पिता वसो” जब वह,
मस्ज़िद में बोल दहाड़ा था।
साहस की वह तो मूरत था,
था आर्य धर्म का अभिमानी,
नेता, पण्डित, गुरु, दानवीर,
था उच्च कोटि का वह ज्ञानी।
लाखों परधर्मी हुए दलित,
भाइयों को वापस लाया था,
शुद्धि वाले आन्दोलन का,
उसने ही चक्र चलाया था।
ऋषि दयानन्द का परम शिष्य,
हर पथ पर आगे बढ़ता था,
हर देश-धर्म के शत्रु को,
वो दिन और रात रगड़ता था।
हो गया जगत् उसका शत्रु,
और फ़िर उसका वध कर डाला,
दिल्ली में उस सन्यासी ने,
जीवन को अर्पित डाला।
उत्तराधिकारी ऋषिवर का,
पक्का ईश्वर विश्वासी था,
बेताज बादशाह दिल्ली का,
वह श्रद्धानन्द सन्यासी था।
“रोहित” जब तक इस दुनियाँ में,
दिन-रात और यह शाम रहे,
तब तलक हमारे दिल में भी,
श्रद्धानन्द जी का नाम रहे।।

—-रोहित

Language: Hindi
3 Likes · 6 Comments · 695 Views
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