स्वामी दयानन्द सरस्वती
ऋषि दयानन्द
कि कैसे हम चुकायेंगे, किये उपकार जो तूने,
जगाने अपने भारत को, सहे थे वार जो तूने,
ऋषिवर तेरे जो अहसान हैं, वह चुक नहीं सकते,
जगत् की झेलकर बाधा, दिये उपहार हैं तूने।।1।।
पिलाया जहर दुनिया ने, मगर बिल्कुल न घबराया,
जगत की हर मुसीबत से, ऋषि था जम के टकराया,
सहे अपमान उसने देश के, सम्मान की खातिर,
ऋषि ने देश का गौरव बुलंदी पर था पहुँचाया।।2।।
ऋषिवर गर जो आते न, तो हरगिज़ हम न बच पाते,
कभी भी अपने मस्तक को यूँ ऊँचा हम न रख पाते,
अगर ज्वाला न सुलगाता, ऋषिवर देशभक्ति की,
न इतनी शीघ्रता से हम, कभी आजाद हो पाते।।3।।
इसी दुनियाँ ने ऋषिवर पै, रोज पत्थर थे बरसाए,
सता कर इस तरह उसको, विरोधी सारे हरषाये,
मगर आँधी में ऋषिवर ने, जलाई वेद की ज्योति,
किसी तूफान से हरगिज़, नहीं ऋषिवर थे घबराये।।4।।
गुरु दण्डी के आकर के, द्वार को खटखटाया था,
मिला आशीष गुरुवर का, तो उनसे ज्ञान पाया था,
चुका कर के गए थे ऋण, गुरुवर का मेरे ऋषिवर,
एक आदेश पै गुरु के, सकल जीवन लुटाया था।।5।।
जिन्होंने धर्म के संग में, किया हरदम बखेड़ा था,
पुण्य वेदों की शिक्षा को, किया जिसने भी टेड़ा था,
धर्म के हर विरोधी को, रगड़ डाला था धरती से,
हर एक ढोंगी व पाखंडी, को ऋषिवर ने उधेड़ा था।।6।।
हुआ अपमान जिनका था, उन्हें सम्मान दिलवाया,
पढ़ने-लिखने का नारी ने, यहाँ अधिकार था पाया,
बनी पैरों की जूती जो, थी हरदम ठोकरें खाती,
उसी नारी को ऋषिवर ने, यहाँ देवी था बतलाया।।7।।
लगाकर जान की बाजी, वो दिन और रात खेला था,
जगत की हर मुसीबत को, यहाँ हँस-हँस के झेला था,
खड़ा चट्टान की भाँति रहा, बिलकुल न घबराया,
विरोधी सारी दुनिया थी, मेरा ऋषिवर अकेला था।।8।।
है सच्चा ज्ञान वेदों में, यही ललकार उसकी थी,
तड़प जाते थे पाखण्डी, कि ऐसी मार उसकी थी,
हमें अभिमान करना था, सिखाया अपने भारत पै,
मेरा भारत है सर्वोत्तम, यही हुँकार उसकी थी।।9।।
दयानन्द नाम का हमने, मसीहा एक पाया था,
डूबते देश भारत को, उसी ने ही बचाया था,
देश के हर विरोधी को, रगड़ डाला मेरे ऋषि ने,
दहाड़ा शेर के जैसे, तो जग ये थरथराया था।।10।।
✍️ रोहित